नवम्बर आ चुका है और साथ में सर्द सुबह और ठण्डी शाम ले आया है। ऊनी कपड़े अभी तक पूरी तरह बाहर नहीं आए हैं, लेकिन एक पतली शॉल अब ज़रूरी हो गई है। सबेरे बिस्तर की आरामदेह गर्माहट को छोड़कर उठना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। सुबह की चाय की पहली प्याली का असर जल्दी ही ख़त्म हो जाता है और मुझे जल्दी ही एक और प्याली चाय लेनी पड़ती है! मैं अपनी शॉल की गर्माहट में दुबकी हुई बैठती हूँ, उंगलियाँ कम को मज़बूती से पकड़े होती हैं और जब मैं अपनी बालकनी से बाहर झांकती हूँ, तो मन दशकों पहले की उन सर्द सुबहों में चला जाता है जब मैं जम्मू में स्कूल की छात्रा थी।
अचानक मेरी यादों के फ़्लैशबैक में हाऊ ज़िन्दा हो उठती है। हाऊ पतली-दुबली, छोटी-सी, क़रीब पचास साल की महिला थी। वह हमारे घर में साफ़-सफ़ाई वगैरह का काम किया करती थी। बरसों की कड़ी मेहनत ने उसके चेहरे को झुर्रियों से भर दिया था, हालाँकि उसके बाल तब भी बिल्कुल काले थे, एक भी सफ़ेद तिनके की झलक उनमें नहीं थी। मूलतः वह जम्मू से मीलों दूर बिलासपुर की रहने वाली थी। सालों पहले उसके पति ने उसे और उसके तीन बच्चों को किसी दूसरी औरत के लिए छोड़ दिया था। बिखर चुकी और लोगों के सवालों का सामना करने के लिए अकेली पड़ चुकी हाऊ ने शर्म और ग़रीबी से तंग आकर एक दिन अपने गांव को छोड़ दिया और बेहतरी की तलाश में जम्मू आ गयी, जहाँ उसके गांव के कई लोग छोटे-मोटे काम किया करते थे।
हमारा घर उन कई घरों में से एक था, जहाँ हाऊ काम किया करती थी। काम ख़त्म करके सुबह की चाय हमारे साथ लेना तक़रीबन रोज़ाना का काम था। और बहुत-सी ठण्डी सुबहों को वह अपने देस (गांव) के क़िस्से बड़ी अजीब-सी बोली में हमें सुनाया करती थी, जो मुझे ज़्यादा-कुछ समझ में नहीं आते थे। न ही वह मेरी भाषा ज़्यादा समझ पाती थी, लेकिन फिर भी अजीब बात यह है कि सब कुछ आसानी से कम्यूनिकेट हो जाता था। वह हर बात जो मैं कहती थी, उसपर वह अपना सर हिलाती थी और मुस्कुराते हुए कहती “हाऊ” (हाँ!)। इसलिए हम उसे हाऊ कहकर पुकारते थे! उसका असली नाम फूलबाई था।
हाऊ मुझे अपने गांव से बहने वाली नदी “महानन्दी” (महानदी) की कहानियाँ सुनाया करती थी और बरसात के दिनों की ख़तरनाक नदी के डरावने क़िस्से उनमें शामिल होते थे। उसने मुझे अपने पति और उसके परिवार की कहानियाँ भी सुनाईं। उसके ग़रीब माँ-बाप ने उसकी शादी तब ही कर दी, जब वह एक छोटी-सी बच्ची थी। जैसे ही वह अपनी शादी-शुदा ज़िन्दगी के सुखद शुरुआती दिनों की यादों में डूबती थी, उसकी आँखें चमक उठती थीं और उसकी मुस्कान सौ मील चौड़ी हो जाती थी। हाऊ का पति उससे उम्र में काफ़ी बड़ा था फिर भी उसने अपने पति की पूरे जी-जान से सेवा की, जबतक कि उसने हाऊ को उमर में और भी छोटी लड़की के लिए छोड़ नहीं दिया। उसकी आँखों की चमक को अब दुःख की छाया ढक लेती थी और वह अपने पति को कोसने लगती थी, वह अपने आँसुओं को भी शायद ही रोक पाती थी।
हाऊ हमेशा एक पतली-सी साड़ी पहनती थी जो वह कमर से कुछ इंच ऊपर बांधती थी और वह साड़ी सर्द-से-सर्द मौसम में भी शॉल की तरह उसके कंधों से लिपटी रहती थी। वह मोज़े नहीं पहनती थी, या कहें तो नए मोज़ों का ख़र्चा नहीं उठा सकती थी। मैंने के बार अपनी के पुरानी जोड़ी उसे दी भी, लेकिन उसने उसे कभी पहना नहीं। हमेशा के लिए दुःख सहने वाली त्यागी हिन्दुस्तानी औरत की तरह उसने उसे अपने सबसे छोटे लड़के को दे दिया। वह चाहती थी कि जब वो बड़ा हो तो पढ़-लिख कर बाबू बने। उसने उसे उन परेशानियों और मेहनत से दूर रखा, जिसका सामना उसे और उसके दो बड़े बेटों को हर पल करना पड़ता था। उसे अपने छोटे बेटे से बहुत आशाएँ थीं, लेकिन तब उसका दिल बुरी तरह टूट गया जब उसे पता लगा कि उसका “बिटवा” बुरी संगत में फँस गया है और बहुत ज़्यादा सिगरेट भी पीने लगा है।
मैंने आख़िरी बार उसे तब देखा था जब मैं घर गयी थी। वह और भी बूढ़ी हो चुकी थी और उसके बालों में कुछ चाँदी की लक़ीरें भी झलकने लगीं थीं, लेकिन उसकी मुस्कुराहट उतनी ही प्यारी और सब कुछ भुला देने वाली थी। “बिटवा” पूरी तरह बड़ा हो चुका था और हाँ, वो बाबू नहीं बन पाया था।
हाल में मैं चुनाव-पूर्व सर्वे के लिए छत्तीसगढ़ गयी थी और हमारा जहाज़ इस नवोदित राज्य के जंगलों और गांवों के ऊपर से गुज़र रहा था तो मैं हाऊ और महानदी की दहशत के बारे में सोच रही थी।
Wednesday, November 12, 2008
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हाऊ की याद! |
Friday, September 26, 2008
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सालगिरह मुबारक हो देव साहब |
देव साहब के लिए मेरा लगाव बचपन से ही रहा है और मेरे परिवार में भी सब उनके चाहने वाले हैं। परिवार की सभी महिलाएँ, जिसमें मेरी माँ और मेरी स्व. नानी शामिल हैं, देव आनन्द की पक्की फ़ैन रहीं हैं। हम सभी इस सदाबहार और चिरयुवा नायक के साथ मुस्कुराए हैं, हँसे हैं, गुनगुनाए हैं, सुबके हैं और रोए भी हैं। हमें उनकी अल्हड़, अनौपचारिक और आधुनिक स्टाइल बेहद भाती थी। वे हमेशा बहुत स्वाभाविक लगे हैं, चाहे वे जिस किसी किरदार में भी क्यों न हों। 60 के दशक की क्लासिक फ़िल्म “हम दोनों” में उनका सेना के अफ़सर का किरदार, उनके घरेलू प्रोडक्शन “तेरे घर के सामने” में दिल्ली के आकर्षक आर्किटेक्ट का किरदार और 70 की ब्लॉकबस्टर “हरे रामा हरे कृष्णा” में उनका हिप्पी ऐक्ट मेरे पसंदीदा हैं। वे हमेशा बेहद ख़ूबसूरत लगे हैं, लेकिन साथ ही बहुत असल और विश्वसनीय भी। मेरे ख़्याल से उनकी अपील की वजह उनका अल्हड़ और आधुनिक स्टाइल है। देव साहब ने कभी भी ज़रूरत से ज़्यादा नाटकीयता का सहारा नहीं लिया, इस कारण उनका आकर्षण और अपील हर उम्र के लोगों को भाते हैं।
साथ ही उनकी ऊर्जा और ज़िन्दगी के लिए उनका उत्साह, ख़ासतौर पर फ़िल्म-निर्माण की कला के लिए, बेहद संक्रामक और प्रेरक हैं। आज भी वे बिना रुके लगातार फ़िल्म बनाते रहते हैं, पचासी साल की उम्र में भी एक नया प्रोजेक्ट उन्हें उतना ही उत्साहित करता है जितना उन्हें 1940 के दौर में करता था जब वे इस क्षेत्र में बिल्कुल नए थे। देव आनन्द पुरानी उपलब्धियों का सहारा लेना पसंद नहीं करते हैं। वे कभी मुड़कर पीछे नहीं देखते हैं। उनके अपने अल्फ़ाज़ में, “लगातार सीखने और चलते रहने की ज़रूरत, दरअसल ज़िन्दा रहने की ज़रूरत है।”
इसके अलावा वे बेहद रुमानी इंसान भी हैं। इस रुमानी सितारे का एक और उद्धरण, “मुझे लगता है कि ज़िन्दगी रुमानी होनी चाहिए, ज़रूरी नहीं कि ऐसा प्यार या अफ़ेयर के नज़रिए से ही हो लेकिन अगर आप एक ख़ूबसूरत पंक्ति पढ़ या लिख रहे हैं, तो यह रुमानी है, अगर आप एक सुन्दर टाई पहन रहे हैं, यह रुमानी है, आपका बोलना रुमानी है।”
कितने ख़ूबसूरत शब्द हैं। मैंने कई बार इन शब्दों को जिया है और इनसे प्रेरणा ली है। मैं आपको एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाती हूँ। पाँच साल पहले, सन् 2003 में, मैं अपनी साथी एंकर के साथ सुबह का कार्यक्रम कर रही थी। इस कार्यक्रम में एक स्टोरी देव आनन्द के बारे में थी कि उन्हें किसी पुरस्कार से नवाज़ा गया है। इस स्टोरी को देखकर मैं अपनी साथी एंकर से बोली, कितने दुःख की बात है कि बॉलीवुड के महानतम सितारों में से एक और एक लिविंग लीजेंड होने के बावजूद देव साहब को अब तक भारतीय फ़िल्म जगत का सबसे बड़ा सम्मान – दादा साहब फाल्के पुरस्कार – नहीं मिला है। यह कहते वक़्त मेरी आवाज़ में आवेश और ग़ुस्से की गूंज थी कि क्या इस पुरस्कार से जुड़े अधिकारी इस तथ्य के प्रति अन्धे हो गए हैं कि लिविंग लीजेंड देव साहब इस सम्मान के सबसे बड़े हक़दार हैं। बाद में उस रात जब मैं सोने की तैयारी कर रही थी, मेरी एंकर मित्र ने फ़ोन किया और उसके बाद उन्होंने जो कहा उसपर यक़ीन करना ज़रा मुश्किल था।
“शीतल, क्या तुमने टीवी पर ख़बर सुनी?”
“कौन-सी ख़बर?”
“अरे भई, अभी-अभी ख़बर आयी है कि देव आनन्द को इस साल के दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। तुम्हारी शिकायत दूर कर दी गयी है”, उसने मज़ाक किया।
मैं आश्चर्यचकित थी। मैंने टीवी खोला और पाया कि ख़बर वाक़ई सच थी!
आने वाले दिनों में और भी कुछ होने वाला था। वो शहर में पुरस्कार लेने के लिए आए थे, मुझे अपने बचपन और वयस्क जीवन के ‘क्रश’ का इंटरव्यू लेने का मौक़ा मिल गया। मैंने राजधानी के एक चमचमाते होटल में उनका इंटरव्यू किया। शूट करने से पहले में काफ़ी नर्वस थी, लेकिन जैसे ही देव साहब लॉबी में आए उन्होंने मुझे पूरी तरह सहज कर दिया।
“हैलो, शीतल। तुमने जो रंग पहना है, वह बहुत प्यारा और ख़ूबसूरत है,” उन्होंने अपने ख़ास अन्दाज़ में एक बड़ी-सी मुस्कान के साथ दोस्ताना लहज़े में हाथ मिलाते हुए कहा।
शताब्दी के महानतम सितारे की तरफ़ से आए इस शुरुआती वाक्य ने मुझे पूरी तरह सहज कर दिया और मैं खुल गयी। इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बहुतेरी बातें कहीं, उनमें जो बात मुझे अच्छी तरह याद है और जिसपर उन्होंने सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया, वह यह थी कि इंसान का एक ख़ास अन्दाज़ होना चाहिए।
“मैं ऐसी चीज़ें पहनना पसन्द करता हूँ जो किसी ने न पहने हों। जो भी मेरे शरीर पर है, यह घड़ी, या फिर यह मफ़लर, या यह ढीली पतलून ही लीजिए जो मेरी व्यक्तिगत पसंद और चुनाव को ज़ाहिर करती है। जिस तरह मैं चलता हूँ, या बोलता हूँ, या प्रतिक्रिया देता हूँ, मेरा व्यक्तिगत और ऑरिजिनल स्टाइल है। मौलिक होना बहुत महत्वपूर्ण है। अपनी सहजता में रहना ही ऑरिजनल होना है। आप रोल मॉडल बन जाते हैं अगर आपकी स्टाइल में मौलिकता है तो।”
तो यह है उनका मंत्र उनके ही मुंह से।
अब मैं अपनी बात देव आनन्द की फ़िल्म “हम दोनों” के उस मशहूर गाने के साथ ख़त्म करती हूँ, जो उनकी शख़्सियत को बयान करता है और कईयों के लिए प्रेरणास्रोत रहा है –
“मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया,
हर फ़िक़्र को धूएँ में उड़ाता चला गया।”
नोट – साइट के लिंक के लिए सागर जी को और कब्बन मिर्ज़ा की तस्वीरों के लिए युनूस जी को धन्यवाद।
Saturday, September 20, 2008
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आओ, एक गीत गुनगुनाएँ |
मैं मेकअप-रूम में बैठी हुई थी और अपने कार्यक्रम के लिए तैयार हो रही थी। मेरी आँखें बन्द थीं और मैं हिन्दी फ़िल्म रज़िया सुल्तान के सपनीले गाने की ख़ूबसूरत धुन में डूबने की कोशिश कर रही थी – आई ज़ंजीर की झंकार ख़ुदा ख़ैर करे, दिल हुआ किसका गिरफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे। यह गाना हमारे हेयरस्टाइलिस्ट की मेहरबानी से बज रहा था, जिसके सेल फ़ोन पर गानों का बेहतरीन संग्रह है और हमेशा किसी-न-किसी गीत से हमारा मनोरंजन करता रहता है। कब्बन मिर्ज़ा की अप्रतिम आवाज़, जाँनिसार अख़्तर के शानदार अल्फ़ाज़ और ख़ैयाम का बेहतरीन संगीत कमरे में जादू-सा माहौल पैदा कर रहे थे और हम सभी साथ-साथ गुनगुना रहे थे। वह पल सुकून और आनन्द से भरा हुआ था।
हालाँकि वह समाधि-सी अवस्था पिया की आवाज़ से जल्दी ही ख़त्म हो गयी - शीतल, तुम्हारे साथ क्या दिक़्क़त है? तुम क्या कचरा सुन रही हो? और कितनी अजीब आवाज़ है! पता नहीं यह बारहवीं शताब्दी का गाना है या क्या? मैं अचंभे और सदमे में थी। कोई कैसे ख़ैयाम के मशहूर संगीत से अनजान हो सकता है और सबसे अहम बात तो यह कि कोई संगीत के इस मास्टरपीस के प्रति इतना असम्वेदनशील कैसे हो सकता है? लेकिन पिया को वाक़ई इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि जब ख़ैयाम ने अपना यह मशहूर गीत बनाया होगा उस वक़्त मेरी यह ऊर्जस्वी और युवा सहकर्मी पालने में झूल रही होगी। “पिया, यह भारतीय फ़िल्म जगत के एक नामी संगीतकार की बहुत मशहूर रचना है। अपनी माँ से पूछना, मुझे यक़ीन है कि उन्होंने यह गाना ज़रूर सुना होगा”, मैंने उससे समझाने की कोशिश करते हुए कहा।
क’मॉन, गिव मी अ ब्रेक। मेरी माँ इस तरह का बहनजी स्टफ़ नहीं सुनती है। उसकी पसन्द बहुत ‘हिप’ और नयी है।
हिप, किसमें? रॉक, पॉप, हिप हॉप वगैरह?
बिल्कुल, वो बीटल्स, बोनी-एम और 70’s और 80’s के बैण्ड्स सुनती है।
और मैं भी सुनती हूँ। लेकिन मैं अपने ख़ैयाम, मेहदी हसन और सी. रामचन्द्रन से भी प्यार करती हूँ।
अब ये लोग कौन हैं?
हमारी बातचीत यहाँ ख़त्म हो गयी, क्योंकि मुझे अपने कार्यक्रम के लिए जाना था। लेकिन इस वाक़ये ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। दरअसल यह मेरे लिए काफ़ी दुःखद था कि कोई संगीत में इतना भेद-भाव कर सकता है, एक ऐसी भाषा जो बेहद पवित्र और सार्वभौमिक है। कम-से-कम मैं तो ऐसा सोचते हुए ही बड़ी हुई हूँ। मैं संगीत से प्रेरित, उत्साहित, चकित, आन्दोलित हुई हूँ और संगीत ने मुझे भीतर तक छुआ है। यह कुछ ऐसा है जो मेरे ऊर्जा-स्तर को तुरंत बढ़ा देता है। मेरा संगीत-प्रेम उस दौर का है, जब मैं छोटी-सी बच्ची हुआ करती थी। मेरे माता-पिता बताते हैं कि तब मैं 70 के दशक के मशहूर गाने गुनगुनाने की कोशिश किया करती थी... कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है – अपनी तोतली ज़ुबान में। हम संगीत के उस बेहतरीन संग्रह को सुनते हुए बड़े हुए हैं जो मेरे माता-पिता के पास था; जिसमें जगजीत-चित्रा की ग़ज़ल से लेकर 60 और 70 के बीटल्स और कार्पेण्टर्स जैसे अंग्रेज़ी बैंड और 50 के दशक का गीता दत्त व हेमंत कुमार का मधुर संगीत भी शामिल है।
हमने संगीत की विभिन्न विधाओं में कभी भेदभाव नहीं किया। बीटल्स के सितार और गिटार के फ़्यूज़न ‘नॉरवीजन वुड्स’ ने मुझे उतना ही आन्दोलित किया है जितना कि तलत महमूद के मधुर और धीमे गीत ‘मैं दिल हूँ इक अरमान भरा, तू आके मुझे पहचान ज़रा’ ने। प्रसिद्ध अमरीकी रॉकर नील डाइमंड के ‘कंटकी वूमन’, ‘ब्रुकलिन रोड्स’ और ‘प्ले मी’ ने मेरी आत्मा को उतना ही छुआ है, जितना कि शहंशाह-ए-ग़ज़ल मेहदी हसन के ‘आए कुछ अब्र कुछ शराब आए’ और ‘दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं’ ने। ज़िन्दादिल मुहम्मद रफ़ी के गीत ‘मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया’ ने मुझे उतना ही प्रेरित किया है, जितना उन्मुक्त फ़्रेंक सिनाट्रा की मेलोडी ‘माई वे’ ने। उस दौर में बीटल्स, ईगल्स, कार्पेण्टर्स, जिम रीव्स, फ़्रेंक सिनाट्रा, एबीबीए और मार्क एंथनी ज़िन्दगी का उतना ही हिस्सा थे जितने लता मंगेशकर, तलत महमूद, मुहम्मद रफ़ी, भूपेन्द्र, नुसरत फ़तेह अली ख़ान, मेहदी हसन और चित्रा (विख्यात दक्षिण भारतीय गायिका)।
मेरा दिन संगीत से ही शुरू और ख़त्म हुआ करता था। और अभी भी ऐसा ही है। केवल मेरी पसंद की सूची और लम्बी हो गयी है। अब इसमें नटालिया इम्ब्रुगलिया, सेलिना डिओन, जॉन मेयर, जेम्स ब्लण्ट, श्रेया घोषाल, मोहित चौहान, सोना महापात्रा, रबी शेरगिल, शफ़क़त अमानत अली, शांतनु मोहित्रा और शंकर-एहसान-लॉय की तिकड़ी भी शामिल हो चुकी है। मुझे कभी-कभी लगता है कि संगीत की तरफ मेरा झुकाव कुछ ज़्यादा ही है। हालाँकि यह ज़रूरी नहीं है कि मुझे हर दूसरा गाना पसंद ही आए, लेकिन मेरे साथ कुछ ऐसा है कि मैं किसी भी गाने को बिल्कुल खारिज नहीं कर सकती हूँ। संगीत मुझे हर रूप-रंग और विधा में भाता है। और मैं जहाँ भी सफ़र करती हूँ, देश के भीतर या बाहर, मेरी ख़रीदारी के एक बड़े हिस्से में उस इलाक़े का संगीत शामिल होता है! मेरे लिए संगीत जीवन का सार है, प्रेरित करने के साथ ही सुकून देने वाली सबसे बड़ी ताक़त। यह पवित्र है, यह मस्ती-भरा है और साथ ही ध्यान की गहराइयों तक पहुँचाने में भी सक्षम है। और इसलिए मैं कार्पेण्टर के उस मशहूर गाने के साथ अपनी बात ख़त्म करती हूँ, जो मेरे सबसे पसंदीदा गीतों में से एक है - Sing, sing a song
Sing out loud, sing out strong
Sing of good things, not bad
Sing of happy, not sad
Sing, sing a song
Make it simple to last your whole life long
Don't worry that it's not good enough
For anyone else to hear
Just sing, sing a song
Friday, September 5, 2008
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मुशर्रफ का पाकिस्तान और मिट्टी के बुद्ध |
मेरा पैन शांत था,और दिमाग सुस्त। व्यवस्तता के बाद ज़िंदगी धीरे धीरे पटरी पर लौट रही थी। मैं सोच रही थी कि मुझे मुशर्रफ के नाम के साथ अपनी सीरिज़ जारी रखनी चाहिए या नहीं। मैंने सोचा कि ये ठीक है,और आखिरकार लिखने का फैसला कर डाला। हालांकि,मुशर्रफ का अध्याय अब पाकिस्तान में बंद हो चुका है,लेकिन मुशर्रफ की अपनी शख्सियत है, और अच्छी व बुरी वजहों से वो पाकिस्तान के राजनैतिक इतिहास में कभी न मिटने वाला अध्याय है। वैसे,एक वजह और भी है लिखने की। दरअसल, पाकिस्तान की मेरी सभी यात्राएं मुशर्रफ के काल में ही हुई हैं।
पिछले कुछ महीने,भारत और पाकिस्तान के लिए अस्थिरता और सरगर्मी भरे रहें हैं। राजनीतिक अस्थिरता लगातार पाकिस्तान में परेशानी का सबब बनी हुई है। उस पर आतंकवादी हमलों की कुछ वारदातों ने माहौल और बिगाड़ा है। और भारत में बिहार की भयंकर बाढ़ के बीच शायद ही कोई आखिरकार हुए अमरनाथ समझौते पर राहत महसूस कर पाया। इस समझौते के बाद जम्मू-कश्मीर में हालात सामान्य होते दिख रहे हैं। लेकिन, इन्हीं उठापटक और सरगर्मियों के बीच रमज़ान और गणेशोत्व के पवित्र दिन शुरु हो गए। बस,सीमा के इस और उस पार के हज़ारों भक्तों ने खुद का ईश्वर के सामने समर्पण कर दिया और शांति-समृद्धि के लिए दुआएं मांगी। मुझे इस वक्त वो बेहद आध्यात्मिक अनुभव याद आ रहा है,जो मुझे एक पाकिस्तान यात्रा के दौरान हुआ था।
मैं भारत और पाकिस्तान के बीच एक और वार्ता को कवर करने के लिए पाकिस्तान में थी। लगातार दो दिनों की बातचीत के बाद,वार्ता सफल हुई और आखिरकार हमें भी खुद के लिए कुछ वक्त मिल गया। हम सभी भारतीय पत्रकारों ने इस वक्त का सदुपयोग 'प्राचीन भारत' यानी पाकिस्तान के शहर तक्षशिला को देखना तय किया। इस्लामाबाद से पश्चिम में करीब 35 किलोमीटर की दूरी पर तक्षशिला है। दिलचस्प है कि स्थानीय लोग तक्षशिला को बड़े ही अज़ीब ढंग से उच्चारित करते हैं-टैक्सला। और,जब भी कोई टैक्सला कहता तो मैं अपनी दबी हुई हंसी छुपा नहीं पाती थी। हमें दोपहर में वहां जाना था,और तब तक मैंने होटल में ही रुकना तय किया था। मैं यह सोचकर ही बहुत रोमांचित थी कि थोड़ी देर में मुझे प्राचीन भारत के एक अहम शैक्षिक केंद्र पर जाना था। चाय के कई गर्म प्याले गटकते हुए मैंने उस सेंटर के बारे में तमाम कल्पनाएं कर डाली,जहां कभी चाणक्य जैसा टीचर हुआ करता था। विचारों की यह प्रक्रिया मुझे कल्पना में ही सैकडों साल पीछे ले गई,जब मौर्य वंश का राज हुआ करता था,और अशोक जैसा राजा राज करता था। उन्हीं के काल में तक्षशिला बौद्ध शिक्षा का अनूठा केंद्र बना था।
मेरी इस कल्पना यात्रा में दरवाजे पर बजी एक घंटी ने दखल दे डाला। ये हाउसकीपिंग वाले की घंटी थी। उसने मुझे कुछ दिखाने की इजाज़त मांगी,जो वो बड़ी बेताबी से शायद मुझे दिखाना चाहता था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि वो अजनबी शख्स मुझे क्या दिखाने को बेकरार है। बहुत अनमने भाव से मैंने उससे कहा, ले आओ। वो कुछ देर में वापस आ गया। उसके हाथ में शानदार ढंग से पैक की गई तीन-साढ़े तीन इंच की कोई चीज थी। उसने मुझसे कहा कि इस कमरे में तीन साल पहले एक शख्स यह छोड़ गया था। और उसे कमरा साफ करते हुए ड्रॉवर में यह चीज मिली थी। मैंने उससे सीधा सवाल किया कि वो कैसे समझ रहा है कि मैं ही इस चीज़ को लेने के लिए ठीक हूं तो वो मुस्कुराया और चल दिया। सलीके से लिपटी इस चीज को हाथ में लेकर मैं घूरने लगी। काफी देर सोचने के बाद मैंने सोचा कि इसे अब खोल ही लिया जाए। और,जैसे ही कागज़ में लिपटी वो चीज़ बाहर आयी,मैं दंग रह गई। यह चिकनी मिट्टी के बने नन्हें बुद्धा की मूर्ति थी। मैं काफी वक्त तक असमंजस में थी कि क्या कहूं। लेकिन,दिन में हम तक्षशिला गए। विश्वविख्यात यूनिवर्सिटी का यह शहर अब बिलकुल बर्बाद हो चुका है। हालांकि, उस दौर की कई चीज़ें अभी भी म्यूजियम में सुरक्षित रखी गई हैं। यह हमारे लिए बेहद शानदार बौद्धिक और आध्यात्मिक अनुभव था। हम सभी ने इस अनुभव का भरपूर आनंद लिया और वापस अपने दौर में आ गए। और हां, चिकनी मिट्टी की इन बुद्धा ने मेरे साथ भारत तक यात्रा की।आज यह मेरे मंदिर में शान से विराजे हुए हैं।
Monday, August 25, 2008
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क्या कश्मीर आंदोलन वास्तव में कश्मीरियत के लिए है? |
किसी आंदोलन का आधार क्या है? पहचान की एक संयुक्त बुनियाद, सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषायी या पारंपरिक समता की नींव। लेकिन, अगर कोई जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के बीच इन्हीं आधारों पर (जैसा अलगाववादी कहते हैं-कश्मीर आंदोलन) समानता की बात करता हैं,तो लोगों को बहुत सी गलत सूचनाएं मिलेंगी। दरअसल, 'कश्मीर' में अलगाववादी (कश्मीर का मतलब सिर्फ कश्मीर,जिसमें जम्मू,लद्दाख का हिस्सा शामिल नहीं होता) कश्मीरियत की बात करते हैं,और इसे ही अपने आजादी के आंदोलन का आधार बताते हैं।
लेकिन,इस मसले पर आगे बात करने से पहले यह जानना जरुरी है कि कश्मीरियत का मतलब क्या है? दरअसल, महाराष्ट्रवाद,पंजाबवाद और तमिलवाद की तरह कश्मीरियत भी एक छोटे से हिस्से के लोगों की साझी सामाजिक जागरुकता और साझा सांस्कृतिक मूल्य है। अलगाववादियों और कश्मीर के स्वंयभू रक्षकों के मुताबिक कश्मीर घाटी में रहने वाले हिन्दू और मुसलमानों की यह साझा विरासत है। लेकिन, सचाई ये है कि जम्मू,लद्दाख और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के पूरे हिस्से और घाटी के बीच कोई सांस्कृतिक समानता नहीं है। तर्क के आधार पर फिर यह कश्मीरियत से मेल नहीं खाता। दरअसल, सचाई ये है कि जम्मू और कश्मीर की संस्कृति में कई भाषाओं और पंरपराओं को मेल है, और कश्मीरियत इसकी विशाल सांस्कृतिक धरोहर का छोटा सा हिस्सा है।
अक्सर, खासकर हाल के वक्त में, अलगाववादी नेता या महबूबा मुफ्ती को हमने कई बार मुजफ्फराबाद, दूसरे शब्दों में सीमा पार के कश्मीर, की तरफ मार्च का आह्वान करते सुना है। लेकिन, हकीकत ये है कि इस पार और उस पार के कश्मीर में कोई सांस्कृतिक, भाषायी और पारंपरिक समानता नहीं है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में रहने वाले मुस्लिम समुदाय का बड़ा तबका रिवाज और संस्कृति के हिसाब से उत्तरी पंजाब और जम्मू के लोगों के ज्यादा निकट है। जिनमें अब्बासी, मलिक, अंसारी, मुगल, गुज्जर, जाट, राजपूत, कुरैशी और पश्तून जैसी जातियां शामिल हैं। संयोगवश में इनमें से कई जातियां पीओके में भी हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के अधिकृत भाषा उर्दु है, लेकिन ये केवल कुछ लोग ही बोलते हैं। वहां ज्यादातर लोग पहाड़ी बोलते हैं,जिसका कश्मीर से वास्ता नहीं है। पहाड़ी वास्तव में डोगरी से काफी मिलती जुलती है। पहाड़ी और डोगरी भाषाएं जम्मू के कई हिस्से में बोली जाती है।
हकीकत में, दोनों तरफ के कश्मीर में सिर्फ एक समानता है। वो है धर्म की। दोनों तरफ बड़ी तादाद में मुस्लिम रहते हैं। तो क्या यह पूरी कवायद, पूरा उबाल धार्मिक वजह से है? इसका मतलब कश्मीरियत की आवाज,जो अक्सर कश्मीर की आज़ादी का नारा बुलंद करने वाले लगाते हैं,वो महज एक सांप्रदायिक आंदोलन का छद्म आवरण यानी ढकने के लिए है। और अगर ये सांप्रदायिक नहीं है, तो क्यों कश्मीरियत की साझा विरासत का अहम हिस्सा पांच लाख से ज्यादा कश्मीरी पंडित इस विचार के साथ नहीं हैं, और दर दर की ठोकर खा रहे हैं। विडंबना ये है कि भाषा,रहन-सहन-खान पान और सांस्कृतिक नज़रिए से कश्मीरियत की विचारधारा में जो लोग साझा रुप में भागीदार हैं,वो कश्मीरी पंडित ही अब घाटी से दूर हैं।
Thursday, August 21, 2008
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बीती रात रस्किन बॉण्ड मेरे सपने में आए |
मुशर्रफ के गली कूचे की यात्रा में रुकावट में लिए मुझे माफ करें। (वैसे,मैंने पहले ही आपको चेतावनी दी थी।)। दरअसल, आज मैं रस्किन बॉंड के बारे में बात करना चाहती हूं, जिन्हें मैंने कल सपने में देखा। सपने में, मैं एक बाइट लेने के लिए उनका पीछा कर रही थी, और एक भले इंसान की तरह रस्किन बॉंड ने मुझे बाइट दी भी।
वैसे,आपमें से ज्यादातर लोग रस्किन बॉण्ड के बारे में जानते ही होंगे। फिर भी, अगर कुछ लोग नहीं जानते, तो उनके लिए इस मशहूर और प्यारे से लेखक का छोटा सा परिचय जरुरी है। जन्म से ब्रिटिश, और शौक से भारतीय रस्किन बॉंड ने अपना पूरा जीवन लेखन को समर्पित कर दिया। वो गढ़वाल की ऊंची पहाड़ियों पर मसूरी में बने अपने घर से लिखते हैं, और वो वहां पिछले 45 साल से रह रहे हैं। मैंने सबसे पहली बार रस्किन को अपने स्कूली दिनों में पढ़ा था। उन्होंने बच्चों के लिए बहुत लिखा है। कहानियां, लघु कहानियां, नॉवल पूरे देश में स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा रहे हैं। मैं स्कूली दिनों से ही उनकी फैन हूं और उनकी कहानियां मुझे बहुत अच्छी और भावपूर्ण लगती थीं, लेकिन मैं उनकी जबरदस्त फैन बनी उनके निबंध और डायरी के अंशों खासकर रेन इन द माउंटने में संग्रहित अशों की वजह से। मुझे ये किताब अपने कॉलेज के फर्स्ट इयर में मिली थी। दिल को जीतने वाली सादगी और कहने के बेहद खूबसूरत अंदाज ने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया। वो पेड़ों से,पहाड़ों से,घाटी से और आम लोगों से बात करते हैं। सब सामान्य हैं,लेकिन उनका अंदाज कहीं गहरे तक पाठक को भेद जाता है। उन्हें पढ़ते वक्त मेरे भीतर भी नाटकीय तौर पर बहुत कुछ बदल गया। इससे मुझे सामान्य चीजों में छिपे करिश्में, उसकी असमान्यता और प्रकृति की अहमियत का पता चला। मैंने उनके कुछ अंश बार बार, कई बार पढ़े। उनके लेखन ने मेरी कल्पनाओं को पंख लगाए और मैंने खुद से यह वादा किया कि एक दिन मैं भी उनकी तरह लिखूंगी।
तो ये है रस्किन बॉंड के लेखन का प्रभाव। लेकिन, बहुत विनम्र रस्किन इसे स्वीकार करने में काफी संकोची हैं। दरअसल, उनका अपने बारे में कहना है" लेखकों में मैं बहुत बड़ा लेखक नहीं हूं। मैं बहुत सामान्य भले न हूं। मैं बस खुद को किसी समुद्री बीच पर चमकते हुए कंकड़ की तरह देखना चाहता हूं। लेकिन, मैं चाहता हूं कि मैं एक रंगीन कंकड़ बनूं कि लोग मुझे उठाएं, कुछ देर हाथ में पकड़कर खुशी महसूस करें और शायद कभी कभार अपनी जेब में भी डाल लें। अगर,किसी को परेशानी होती है तो वो मुझे फिर समुद्र में फेंक दे। शायद,कोई लहर मुझे फिर बीच पर लाकर पटक दे,और फिर कोई मुझे दोबारा उठा ले। (रस्किन ,अवर एंड्यूरिंग बॉंड से अंश)"
रस्किन बॉड से मेरी पहली और इकलौती मुलाकात खासी नाटकीय थी। दस साल पहले, मैं कुछ दोस्तों के साथ मसूरी गई थी। जुलाई का महीना था,और बरसात शुरु ही हुई थी। पहाड़ों ने छटा अद्भुत थी, और जैसा रस्किन लिखते हैं "one could watch from the window trees dripping and the mist climbing the valley" (quote from the book, RUSKIN, OUR ENDURING BOND). मेरे जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा से मिलने के लिए ये सही योजना थी। लेकिन कैसे? यही सबसे बड़ा सवाल था। मैं मसूरी में उनके रहने वगैरह के बारे में बिलकुल नहीं जानती थी, और न ही मैं ऐसे किसी शख्स को जानती थी,जो मुझे उनके बारे में सही जानकारियां दे सके। मैं उस वक्त कॉलेज में थी,और ज्यादा संपर्क भी नहीं थे। मैंने 'रेन इन द माउंटेंस' में पढ़ा था कि वो इवे कॉटेज नाम की किसी जगह पर किराए पर रहते हैं। लेकिन,ये किताब भी कुछ साल पहले लिखी गई थी। रस्किन वहां से कई और जा सकते हैं ! लेकिन,मेरे पास इसके अलावा कोई दूसरी जानकारी भी तो नहीं थी लिहाजा मैंने अपने दोस्तों को साथ लेकर उस बरसाती दोपहर में मिशन रस्किन शुरु कर डाला। स्थानीय लोगों से पूछते पाछते इवी कॉटेज की तरफ जाने वाले पहाड़ी रास्ते पर चलना शुरु किया। मुझे उस वक्त बरसात की बिलकुल परवाह नहीं थी, लेकिन उस वक्त इस टॉर्चर के लिए मेरे दोस्त मुझसे खासे खफा थे। मैं ये बात उनके चेहरों पर साफ पढ़ सकती थी। लेकिन, एक बार जब हम इवी कॉटेज पहुंचे ,तो उन्होंने सीढ़ियों पर चढ़ने से ही इंकार कर दिया,जहां रस्किन अपने गोद लिए परिवार के साथ रहते थे। उन्हें नीचे छोड़कर,और भारी आशंकाओं के बीच मैंने दरवाजा खटखटाया। मन में सवाल था कि क्या होगा अगर वो यहां नहीं रहते हुए? क्या होगा अगर उन्हें मेरा बिना इजाजत लिए आना अच्छा नहीं लगा? मैं बहुत नर्वस थी। रस्किन के एक पोते ने दरवाजा खोला । मैंने उन्हें अपने आने की वजह बतायी। उसने मुझसे इंतजार करने को कहा और अंदर चला गया। कुछ पल बाद, रस्किन बॉंड खुद दरवाजे पर आए। जी हां, बिलकुल वही थे-बिलकुल जीते जागते। मैं बिलकुल चुप थी,और उन्हें देखे जा रही थीं। मेरे संकोच को भांपते हुए रस्किन ने चुप्पी तोड़ी, और बस यही से हमारी बातचीत शुरु हुई।
'Yes, young lady?'
'Sir, I am a huge fan of your writings. I came all the way from Delhi to meet you. I hope , I didn't disturb you.'
'Well, I was having my lunch! You came all by yourself?'
'No Sir, with a few friends.'
'Where are they?'
'They're waiting downstairs. They were too scared to come up.'
'What? You left them outside in the rain. Call them up.'
थोड़ी देर में मेरे बाकी दोस्त भी ऊपर आ गए। हमने थोड़ी ही देर रस्किन से बात की,लेकिन ये मुलाकात कभी न भूलने वाली थी।
बहरहाल, मैं बीती रात के अपने सपने पर आती हूं। मैं जब सुबह जागी,तो मुझे भाई की तरफ से एक सरप्राइज गिफ्ट मिला। उसने मेरे लिए रस्किन बॉड की एक किताब खरीदी थी। और, यकीं मानिए कि इस किताब पर ऑटोग्राफ थे-खुद रस्किन बॉड के। दरअसल, दिल्ली के एक मशहूर बुकसेलर ने "रस्किन बॉण्ड से मिलिए" कार्यक्रम का आयोजन किया था। और, मेरा भाई,जब उस बुकस्टोर के पास से गुजर रहा था,तभी उसे रस्किन की एक झलक मिल गई । रस्किन उस वक्त अपने प्रशंसकों को अपने ऑटोग्राफ दे रहे थे। रस्किन के लिए मेरी दीवानगी से परिचित मेरे भाई ने एक किताब पर मेरे लिए भी रस्किन से ऑटोग्राफ ले लिए। और विश्वास कीजिए,जब से इस किताब को मैंने हाथ में लिया है, मैं मुस्कुरा रही हूं।
To conclude, in Ruskin's own words, 'Life has not exactly been a bed of roses, yet, quite often, I have had roses out of season.'( from the book, RUSKIN, OUR ENDURING BOND)
Friday, August 15, 2008
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मुशर्रफ़ के पाकिस्तान के गली-कूंचे |
मैं जैसे ही इस पोस्ट को लिखने बैठी, न्यूज चैनलों ने राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के आखिरकार इस्तीफा देना तय कर लेने की खबरों के बीच लाहौर में आत्मघाती हमले की ब्रेकिंग न्यूज चलानी शुरु की। बस, यहीं मुझे पिछली पोस्ट में लिखा सुशांत का कमेंट भी याद आ गया। सुशांत, आप बिलकुल सही हैं। मुशर्रफ के बाद के पाकिस्तान को लेकर तमाम आशंकाएं हैं। इस पर बड़ा सवालिया निशान है कि क्या मुशर्रफ के जाने का सही मतलब पाकिस्तान में सही मायने में लोकतंत्र की स्थापना है या अब कट्टरपंथियों और जेहादी ताकतों को अपना काम करने के लिए पाकिस्तान के रुप में सही मैदान मिल गया है। हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार इस बाबत पहले की अपनी चिंता जाहिर कर चुके हैं। हम केवल आशा कर सकते हैं कि वहां जो कुछ हो, वो दोनों देशों और यहां के लोगों के भले के लिए हो।
मेरी पिछली पोस्ट में अनुराग ने लिखा था कि मैं ब्लॉग पर पाकिस्तान के बारे में,वहां के लोगों के बारे में और वहां अपने अनुभवों के बारे में और लिखूं। इतनी सारी बातों को एक पोस्ट में लिखना मुमकिन नहीं है लिहाजा मैंने सोचा है कि मैं एक के बाद एक अपने अनुभव लिखती रहूं। हां, ये जरुरी नहीं है कि ये सब एक क्रम में हों क्योंकि जैसे जैसे मैं यादों के सागर में डुबकी लगाऊंगी,बातें याद आएंगी और मैं उन्हें लिख डालूंगी। मुझे उम्मीद है कि आप इस 'बंपी राइड' का भी लुत्फ लेंगे।
पाकिस्तान 2003 की गर्मियों तक मेरे लिए पूरी तरह एक रहस्य था( एक मायने में ये अब भी है)। इराक के युद्ध के मैदान में तब्दील होने के बाद मुझे मौका मिला कि मैं वहां के पड़ोसी मुल्कों में जा पाऊं। दिसंबर 2001 में संसद पर हमले के करीब डेढ़ साल बाद भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों के सामान्य होने की प्रक्रिया शुरु हो चुकी थी । इससे भी ज्यादा दोनों देशों में रह रहे लोगों को राहत देने की प्रक्रिया,शांति के लिए नए कदम या कूटनीतिक शब्दों में विश्वास बनाने की कवायद( कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स) की हर तरफ से शुरु हो गई थी। दोनों देशों ने दिल्ली और लाहौर के बीच अरसे से बाधित बस सेवा शुरु करने की घोषणा की, और दोनों देशों के पत्रकारों को सदा-ए-सरहद की मुफ्त सवारी करायी गई। इन सदस्यों में मैं भी एक थी। ऐतिहासिक मौके का गवाह बनने की उत्तेजना और रोमांच से लबालब मैंने इस मौके का पूरा लुत्फ लिया। हमें 530 किलोमीटर लंबी इस यात्रा को पूरा करने में करीब आठ गंठे लगे। मुझे याद है कि देर शाम को बस ने वाघा बॉर्डर पार किया तो वहां मौजूद लोग खुशी से झूम उठे थे। जज्बातों से सराबोर दोनों देशों के रिश्तेदारों ने एक दूसरे को गले लगाया तो भावनाओं का समुन्दर बह उठा।
लाहौर में हमें लोकल मीडिया ने वास्तव में घेर लिया। सभी हमसे एक बाइट चाहते थे। इसके बाद हाथों में गुलदस्ते और फूल लिए लोगों ने देर तक वेलकम पार्टी की। स्थानीय लोगों ने इतनी गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया कि हम सारी थकान भूल गए। मुस्कुराते दमकते चेहरे,जो बिलकुल हमारे जैसे थे,भाषा और तौर तरीका,जो हमारी तरह ही दिखता था, ने हमें फौरन घर सा माहौल दिला दिया।
उस रात एक दिलचस्प वाक्या भी हुआ। दिन भर की थकान के बाद,जब मैं होटल के कमरे में सुस्ताने की तैयारी कर कर रही थी,मुझे इंटरकॉम पर एक कॉल आया। वो फोन एक स्थानीय आदमी का था,जिसने खुद को बिजनेसमैन बताया। उसने मुझे एक संदेश दिया। संदेश एकता कपूर के लिए। दरअसल, वो चाहता था कि मैं एकता कपूर को यह संदेश दूं कि वो सास-बहू वाले सीरियल बनाना बंद करे क्योंकि इन सीरियलों का भूत पाकिस्तान की महिलाओं के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था। उसकी शिकायत थी कि उनकी पत्नी भी काम के बाद का सारा वक्त सीरियल देखने में गुजारती थी,और इस दौरान वो न केवल उन्हें बल्कि पूरे परिवार को नज़रअंदाज कर देती है। उनकी ये भी शिकायत थी कि भारी भरकम और भयंकर सी दिखने वाली महिला खलनायकों का भी पाकिस्तानी महिलाओं पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है,और इन सीरियलों की वजह से घरों में सास-बहू के झगड़े बढ़ रहे हैं। उन्हें मैंने भरोसा दिलाया कि उनका संदेश मैं एकता कपूर को पहुंचा दूंगी। इसके बाद मैंने फोन काट दिया। निश्चित तौर पर,एकता तक ये संदेश कभी नहीं पहुंचा और ये सास बहू वाले सीरियल आज भी बदस्तूर जारी हैं। वैसे,मैंने ये संदेश दे भी दिया होता तो ऐसा नहीं है कि वो ये सीरियल बनाना बंद कर देती।लेकिन, इस छोटे से वाक्ये ने मुझे इसका अहसास करा दिया कि भारतीय मनोरंजन उद्योग की जड़े पाकिस्तानी समाज में भी गहरी रच-बस चुकी थी। इसकी बानगी अगले कुछ दिनों में और दिखनी थी।
लाहौर की मेरी पहली यात्रा महज तीन दिन की थी। वो यात्रा बहुत बहुत बहुत सीमित दायरे में थी क्योंकि हमने केवल पाकिस्तान के सूचना मंत्रालय के अधिकारियों के साथ ही यात्रा पूरी की। अगर हमें कहीं खुद जाना होता तो भी हमें सूचना मंत्रायल द्वारा तय पत्रकारों के साथ ही जाना पड़ता था ताकि वो इस बात पर नज़र रख सकें कि हम किस तरह की स्टोरी कर रहे हैं। और हमें उन्हें इस बात का भरोसा दिलाना पड़ता था कि हम कोई नगेटिव स्टोरी नहीं कर रहे हैं। मुझे जिन पत्रकार साथी के साथ भेजा गया था,वो तकरीबन चालीस की उम्र के पारिवारिक शख्स थे। उनके तौर तरीके खासे पॉलिश्ड थे। लेकिन,वो कभी कभी मुशर्रफ और उनके राज को लेकर गाली गलौज कर देते थे। साथ ही,उनका ये भी कहना था कि वो भारत के साथ संबंध सामान्य करने को लेकर संवेदनशील नहीं हैं। मुझे ऐसा लगता था कि वो ये सब इसलिए कह रहे थे ताकि मुझे उत्तेजित कर सकें और कुछ उगलवा सकें (अगर नकारात्मक हो)। दरअसल, उन्हें शायद लगता हो कि मैं रिपोर्टिंग की वजह से पाकिस्तान के प्रति अपनी दुष्भावना छिपा रही हूं। और मुझे लगता है कि दोनों देशों के बीच दुश्मनी और अविश्वास के लंबे इतिहास के बीच हमारा एक दूसरे पर शक करना एक हद तक लाजिमी था, और उसे समझा जा सकता था। लेकिन,लाहौर में जितने पत्रकार मेरे संपर्क में आए,सब ऐसे नहीं दिखे। मुझे लाहौर में कई बेहद शानदार अनुभव भी हुए। जिनका जिक्र बाद में…
Monday, August 11, 2008
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परवेज़ मुशर्रफ़ और लाहौर की एक शाम |
मुझे मालूम है कि आप उत्सुक हैं और दिमाग़ पर ज़ोर डाल रहे होंगे। हालाँकि महाभियोग का सामना कर रहे पाकिस्तान के फ़ौजी-शासक और डेढ़ साल पहले लाहौर की उस ख़ूबसूरत शाम के बीच कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, लेकिन फिर भी दोनों क़रीबी तौर पर जुड़े हुए हैं। आइए, मैं आपको बताती हूँ कि माजरा क्या है।
वे सभी पत्रकार जिन्होंने अपने कैरियर में कभी पाकिस्तान की यात्रा की है, ख़ासकर भारतीय, उन्हें पाकिस्तानी फ़ौज के तौर-तरीकों की झलक ज़रूर मिलती है, और साथ ही इसकी कुख्यात व हर जगह फैली हुई ख़ुफ़िया शाखा आईएसआई की भी। और हम लोग भी इसका अपवाद नहीं थे! वह साल था 2007, और महीना था जनवरी। परवेज़ मुशर्रफ़ सत्ता पर काबिज़ थे और पूरी तरह पाकिस्तान का नेतृत्व कर रहे थे। आख़िरकार यह राष्ट्रपति पद पर उनका चुनौती-रहित और पूरी तरह तानाशाही भरा लगातार आठवाँ साल था, साथ ही वे वक़ीलों के व्यापक विरोध-प्रदर्शन से महीनों दूर थे जो अंततः उनके पतन का और पाकिस्तान में नए राजनीतिक समीकरण के उभरने का कारण बना। वर्दी और पाकिस्तानी फ़ौज की पूरी वफ़ादारी मज़बूती और दृढ़ता से उनके पीछे थी। पूर्व-जनरल के ख़िलाफ़ एक शब्द भी बर्दाश्त नहीं किया जाता था और सार्वजनिक तौर पर उनके विरोध में कुछ भी कहने से लोग डरते थे।
मैं पत्रकारों के उस समूह का हिस्सा थी जो दोनों देशों के बीच चल रही बातचीत के अहम पड़ाव को कवर करने इस्लामाबाद गए थे। वार्ता के बाद बाक़ी सभी घर लौटने की तैयारी करने लगे, लेकिन मैं और मेरी कैमरापरसन, जो इत्तेफ़ाक से एक महिला है, दोनों ने अपना दौरा एक दिन के लिए बढ़ा दिया और लाहौर जाने का फ़ैसला किया। मेरे दिमाग़ में एक दिलचस्प स्टोरी थी और शहर में कुछ दोस्तों से मुलाक़ात भी करनी थी। लाहौर के लिए निकलने से ठीक पहले हम रावलपिण्डी में पाकिस्तानी सेना के हेडक्वार्टर भी गए, ताकि मुशर्रफ़ के साथ इंटरव्यू का वक़्त तय किया जा सके। मुशर्रफ़ शहर से बाहर थे और हमारे पास महज़ एक दिन ही था, इस वजह से इंटरव्यू नहीं हो सका। हमने अपना सामान बांधा और टैक्सी लेकर लाहौर के लिए निकल पड़े। शाम अभी शुरू ही हुई थी और हमें बताया गया कि इस्लामाबाद-लाहौर ऐक्सप्रेस-वे के ज़रिए लाहौर का रास्ता 5-6 घण्टे का है। ड्राइवर एक शालीन इंसान था और जब उसे यह महसूस हुआ है हम भारतीय हैं, तो उसने कार के स्टीरियो पर नए हिन्दी गाने बजा दिए।
सफ़र आरामदेह रहा और ठण्ड के मौसम की सर्द हवाओं में काँपती हुई मैं सोचती रही कि क्या यह वही देश है जहाँ मैं पहले तीन बार आ चुकी हूँ, जिस दौरान हर बार मुझे किसी ख़ास शहर के अन्दर या दो शहरों के बीच सफ़र करने में काफ़ी बन्धन महसूस हुआ। क्या यह दोनों देशों के बीच सुधरी बातचीत और उससे पैदा हुए दोस्ताना मिज़ाज की वजह से था? क्या आख़िरकार दोनों देशों के बीच भरोसा पनपने लगा था? मैं सोचती रही।
देर रात हम लाहौर पहुँचे, बिना किसी मुश्किल के गैस्ट-हाउस में कमरा लिया और मेरा आश्चर्य फिर से बढ़ गया। लाहौर में एक दोस्त, जो पाकिस्तान के एक मुख्य टीवी चैनल में काम करता है, हमें डिनर के लिए बढ़िया रेस्टोरेंट में ले गया – जिसके बारे में हमें बताया गया कि विभाजन से पहले वहाँ वेश्यालय हुआ करता था! रेस्टोरेंट, जिसका नाम “कुकूज़ डेन” था, ने ऐतिहासिक शहर लाहौर और ख़ूबसूरती से चमकती हुई बादशाही मस्जिद का का आकर्षक नज़ारा पेश किया। पराठों और लज़ीज़ पंजाबी साग के कई दौर चलते रहे और हम लोग बतियाते रहे, कुछ देर के लिए मैं यह पूरी तरह भूल गयी कि मैं लाहौर में बैठी हूँ, घर से मीलों दूर एक ग़ैर-दोस्ताना पड़ोसी मुल्क में। सब कुछ पूरी तरह सामान्य लग रहा था, न कोई हमें देख रहा था और न ही कोई पीछा कर रहा था।
दूसरे दिन दोपहर में हमारी फ़्लाइट थी और इसलिए हमने अगली सुबह बेगम नवाज़िश अली, जिन्हें अली सलीम के नाम से भी जाना जाता है, के साथ एक एक्सक्लूज़िव इंटरव्यू शूट करने का फ़ैसला किया। बेगम पाकिस्तान के मशहूर क्रॉस-ड्रेसिंग टीवी होस्ट हैं। हमने शहर के केन्द्र में एक पार्क को इंटरव्यू शूट करने के लिए चुना और किसी ने न तो हमें रोका, न ही हमारे बारे में ज़्यादा मालूमात हासिल करने की कोशिश की। और अब मेरे आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी!! लेकिन, रुकिए! जल्दी ही कुछ घटित होने वाला था।
जैसे ही मैंने टहलते हुए अली सलीम के साथ इंटरव्यू शुरू किया, मुझे दखलअन्दाज़ी के शुरुआती संकेत मिलने लगे। एक लम्बा, पतली दाढ़ी वाला आदमी सादे कपड़ों में अचानक प्रकट हुआ और उसने पार्क में हमारा पीछा करना शुरू कर दिया। अली सलीम या बेगम नवाज़िश को मुशर्रफ़ को अक्सर भला-बुरा कहने के लिए जाना जाता है, वह मुशर्रफ़ के ख़िलाफ़ कुछ-न-कुछ कह सकता था।
इस बात ने उस आदमी को हमारे कुछ और इंच नज़दीक ला दिया। और जल्दी ही पार्क में हम चारों लोगों के बीच चूहे-बिल्ली जैसी दौड़ शुरू हो गयी। एक तरह से यह सब दिलचस्प था, लेकिन साथ ही काफ़ी चिंताजनक भी। खीझकर और परेशान होकर हमने तेज़ी से इंटरव्यू ख़त्म किया और पार्क से निकल गए। जब हम पार्क के बाहर अपने पत्रकार मित्र राशिद (बदला हुआ नाम) का इंतज़ार कर रहे थे, वह आदमी हमारे इधर-उधर चक्कर लगाता रहा।
राशिद की कार देखकर हम लोगों को बड़ी राहत मिली। हम तुरंत कार में सवार हुए और उसे पूरा वाक़या सुनाया। वह आदमी अभी भी नज़र रखे हुए था और राशिद की कार का पीछा कर रहा था। राशिद हमें सीधे अपने टीवी ऑफ़िस ले गया और फ़ोन पर इधर-उधर बात करते हुए हमें अपने केबिन में बिठा दिया। हमारी फ़्लाइट के लिए अभी भी तीन घंटे बाक़ी थे और थोड़ी ख़रीदारी करना चाहते थे। राशिद ने हमसे वादा किया था कि वह हमें बाज़ार ले जाएगा, लेकिन अब उसने हमसे सामान की एक सूची बनाने को कहा और अपने सहायक को सामान लाने का ज़िम्मा सौंप दिया। वह बहुत तनाव में दिखाई दे रहा था, और अपने तनाव को छुपाने के लिए इधर-उधर की बातें कर रहा था। हालात एक साथ ही अजीबो-ग़रीब, दिलचस्प और तनावपूर्ण थे। उसने हमें अपने केबिन की कुर्सियों से हिलने नहीं दिया और जैसे ही हमारी उड़ान का वक़्त नज़दीक आया, उसने हमें सीधे हवाई-अड्डे पर छोड़ने का इंतज़ाम भी किया। और हाँ, वह शख़्स अभी भी हमारा पीछा कर रहा था और यह तय करने की कोशिश कर रहा था कि हम ऐअरपोर्ट के अलावा और कहीं न जा सकें। घर लौटने के बाद कई महीनों तक मुझे राशिद की तरफ़ से कोई मैसेज नहीं मिला, ऐसा लगता था मानो वह एक भारतीय पत्रकार से दोस्ती करने की वजह से अभी तक डरा हुआ था। बाद में हमें पता चला कि रावलपिण्डी के आर्मी हैडक्वार्टर के निकलने के वक़्त से ही लगातार हमारा पीछा किया जा रहा था! उस वक़्त परवेज़ मुशरर्फ़ और पाकिस्तानी फ़ौज का इतना डर था!
आज, जबकि परवेज़ मुशर्रफ़ को पाकिस्तान में लोकतंत्र को खोखला करने और 700 मिलियन अमरीकी डॉलर का दुरुपयोग करने के आरोपों के चलते नवाज़ शरीफ़-ज़रदारी द्वारा प्रायोजित महाभियोग का सामना करना पड़ रहा है; मैं सोच रही हूँ कि क्या वाक़ई उस तानाशाह के राजनीतिक ख़ात्मे का वक़्त नज़दीक आ गया है, जिसने एक बार अपने बारे में कहा था कि वह लोकोक्ति की उस बिल्ली की तरह जिसके पास नौ ज़िन्दगियाँ होते हैं? क्या इस बार वे बच पाएंगे? फ़ौज का रुख़ क्या होगा? क्या उसने भी उम्मीद छोड़ दी है या फिर उसकी झोली में कुछ और आश्चर्य भी है – अक्टूबर 1999 में सत्ता पर किए गए कुख्यात कब्ज़े की तरह? विश्लेषकों को कहना है कि यह ताबूत में आख़िरी कील है। लेकिन मुशर्रफ़ और उनके बदनाम अड़ियलपन को जानने की वजह से, और इस बात के चलते कि अभी भी मुशर्रफ़ के पास नेशनल असेम्बली और प्रधानमंत्री को बर्ख़ास्त करने की ताक़त है – पहले से कुछ भी कहना बहुत मुश्किल है। हालाँकि ऐसा होने की संभावना भी बहुत कम है क्योंकि इसके लिए पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की सहमति ज़रूरी है और यह सबको मालूम है कि मुशर्रफ़ के साथ उसका छत्तीस का आंकड़ा है।
अभी के लिए इतना ही... बाक़ी जब हम अगली बार मिलेंगे!!
Saturday, August 9, 2008
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उत्साहवर्द्धन का धन्यवाद |
अपनी पहली पोस्ट पर इतने सारे कमेंट देखकर बहुत ख़ुशी हो रही है। साथ ही, साथी ब्लॉगरों से मिले इस उत्साह से रोमांच भी हो रहा है। इसके लिए सभी को धन्यवाद! अब मुझे यक़ीन है कि यह यात्रा – विचार-यात्रा, ख़ासी रोचक और अहम होगी।
राजेश, आपने बिलकुल सही कहा कि धर्म की ताक़त ऐसी है, जो तार्किक लोगों को भी अंधा बना देती है। लेकिन, एक संवेदनशील नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम अपने सीमित साधनों के ज़रिए मज़हबी प्रतिद्वन्द्विता के खोखलेपन की वजह को उजागर कर सकें। मैं अपनी पहली पोस्ट में ही कह चुकी हूं कि ब्लॉगिंग का मेरा विचार किसी स्थायी समाधान या कुछ ठोस जवाब पाने के लिए नहीं है। इसका मकसद महज़ ईमानदारी से और एजेंडा-मुक्त बातचीत शुरु करना है। मैं जानती हूँ कि ऐसा कहना, करने से कहीं कठिन है। दरअसल, हम सभी के अपने पूर्वाग्रह होते हैं -धार्मिक या अन्य या फिर निजी प्राथमिकताएँ। लेकिन, इस माध्यम की यही चुनौती है और शायद यही ख़ूबसरती भी। आपको क्या लगता है?
मिहिर, हामिदा की कहानी बिलकुल सामान्य हो सकती है। लेकिन यह एक बेहद ठोस संकेत है कि राज्य में शांति और धार्मिक सहनशीलता असंभव नहीं है। जो आज नहीं दिख रही है, ख़ासकर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीति के अपने एजेंडे के चलते, साथ ही सरहद पार पड़ोसी द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा घातक तंत्र भी इसकी एक बड़ी वजह है। जम्मू की मूल निवासी होने की वजह से वहाँ के हालात को लेकर संवेदनशील हूँ और जागरुक भी। राज्य के दूसरे इलाक़ों के मुक़ाबले जम्मू को उपेक्षित और अनदेखा किए जाने भावनाओं से मैं वाकिफ़ हूँ। उन्हें आवाज़ देने में कोई बुराई भी नहीं है। लेकिन मिहिर आप मुझे बताइए कि क्षेत्रीय और धार्मिक आधार पर लोगों को बांटकर हमें क्या मिल रहा है? ऐसे में, अलगवावादी और ग़ैर-अलगाववादियों में अंतर ही क्या है? क्या इससे उन अलगाववादी ताक़तों को ही फ़ायदा नहीं होगा, जिन्होंने पूरे कश्मीर आंदोलन की जड़ में धार्मिक भेदभाव की बात डाल दी है।
राजीव और सागर, मैं भी आशा करती हूँ कि हमारे राजनेता इतने अवसरवादी और बेशर्म न हों। लेकिन, इससे बचने का रास्ता क्या है? आख़िरकार हम लोग उन्हें अपने ही बीच से चुनकर ही सत्ता में लाए हैं।
आख़िर में... अमित, मेरे विचारों-अभिव्यक्तियों को समझने और सराहने के लिए धन्यवाद। शायद कुछ लोगों पर बरसात का ऐसा ही असर होता है!
Friday, August 8, 2008
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श्री गणेश!!! |
लोग ब्लॉग क्यों लिखते हैं, या सीधे-सीधे कहूँ तो मैंने ब्लॉग लिखने और ब्लॉगर की जमात में शामिल होने का फ़ैसला क्यों किया?
मैंने इस बावत काफ़ी सोचा है। और आज जब मूसलाधार बारिश हो रही है तो मुझे लगता है कि मैंने शायद जवाब पा लिया है।
बारिश के साथ हमेशा रोमांचित होने की वजह होती है, बिना इस बात की परवाह किए कि सड़कों पर पानी भर आया होगा, मैन्होल्स खुले होंगे, ट्रैफ़िक जाम होगा, बिजली कटेगी! आकाश से बरसने वाली हल्की बौछारें सामान्य से शख़्स को भी रचनात्मक बनने के लिए प्रेरित करती हैं। कवि के लिए छत और खिड़की के बाहर धीरे-धीरे गिरती पानी की बूंदें एक कविता ही होती हैं। संगीत के दीवानों के लिए यह सुरों का उतार चढ़ाव है, जबकि फ़ुटपाथ पर सोने वाले भिखारी के लिए ये तकलीफ़ों की कभी न ख़त्म होने वाली घड़ी है।
अच्छा-बुरा, खट्टा-मीठा कुछ भी हो; बारिश की हर बूँद ख़ुद में एक कहानी है। बस, यहीं मुझे अपने सवाल का जवाब भी मिल गया है। दरअसल बारिश की तरह, मैं महसूस करती हूँ कि मेरे पास भी कहने के लिए एक कहानी है। सचाई ये भी है कि तक़रीबन एक दशक तक इस बड़ी दुनिया में कहानियों का पीछा करते हुए और टीवी स्टूडियो में भीतर उनका जवाब पाने की कवायद के बीच, मेरे पास भी कहने को बहुत कुछ है और कई अनसुलझे सवाल हैं। तमाम कहानियाँ निजी भी और परायी भी। लोगों की, इलाक़ों की, घटनाओं की, ग़ैर-घटनाओं की कहानियाँ; जिन्हें मैं सम्मत विचार वाले और भिन्न सोच रखने वालों के साथ भी बांटना चाहती हूँ। मेरा मक़सद किसी नतीजे पर पहुँचना या कोई सटीक जवाब पा लेना नहीं है। दरअसल मक़सद है एक यात्रा की शुरुआत करना, विचार-यात्रा की। एक सच्ची, सही और बिना किसी एजेंडा वाली विचार-यात्रा और मेरे गृह-प्रदेश जम्मू-कश्मीर में मौजूदा गतिरोध के बीच जो पहली कहानी मेरे ज़ेहन में आती है, वो है हमीदा की कहानी। हमीदा यादों के दूर कोने से आज झाँक रहा है, लेकिन वो मेरे ख़ूबसूरत राज्य के शांतिप्रिय दौर की न भूलने वाली एक याद है।
काफ़ी साल पहले, १९८२ में, मैं पहली बार कश्मीर गयी थी। मेरे पापा श्रीनगर में तैनात थे, जबकि हमलोग जम्मू में रहते थे। मैं उस वक़्त पहली क्लास की स्टूडेंट थी और उस वक़्त तक मैंने कश्मीर को या तो फ़िल्मों में देखा था या फिर पापा के पोस्टकार्ड्स में। हम पापा से मिलने गर्मियों की छुट्टी में गए थे। हालाँकि उस वक़्त मैं बहुत छोटी थी, लेकिन मुझे याद है कि फ़िल्मों में अक्सर दिखाए जाने वाले बारामूला के यूकेलिप्टस पेड़ों की बड़ी क़तार के पास जैसे ही हमारी बस पहुंची थी, मैं ख़ुशी से उछल पड़ी थी। पापा श्रीनगर में कश्मीरी स्टाइल वाले सरकारी बंगले में रहा करते थे और स्थानीय मुस्लिम लड़का हमीदा उनका नौकर था।
हमीदा एक प्यारा-सा लड़का था, जिसके चेहरे पर हमेशा मुस्कान बिखरी रहती थी। वो हमारे लिए ज़ायकेदार कश्मीरी व्यंजन और गर्म-गर्म कश्मीरी कहवा कभी भी बना दिया करता था। कोई भी पहर हो, हमीदा से बस कहने की देर थी कि वो चीज़ हाज़िर हो जाया करती थी। उसका मुझसे और मेरे छोटे भाई से बड़ा लगाव था। अक्सर हम आवाज़ लगाते - हमीदा... और वो अपनी जेब में कुछ-न-कुछ लेकर हमारे पास दौड़ आता था। हमारे मनोरंजन के लिए वो टेप रिकॉर्डर बजा दिया करता था। वो गाने का शौक़ीन था और कभी-कभार किचन में गुनगुनाया करता था। उन दिनों रोज़ाना कश्मीर के मुग़ल गार्डेन की उन सपनों-सी सैरगाह में वो हमारा साथी हुआ करता था। वो हमें वहाँ के बारे में खूब बताया करता था, ख़ासकर परीमहल के बारे में। उसकी कहानियों में बहुत रस था। खंडहर पड़े महलों में रात को परियों के आने की कहानियों से हम रोमांचित हो जाते थे। मशहूर शिव मंदिर, शंकराचार्य की ओर चढाई करते हुए, वो कभी ख़त्म ना होने वाली सीढियों पर हमारा हाथ पकड़ कर चढ़ता रहता था।
हमारी कश्मीर की रोमांचकारी ट्रिप दस दिनों में ख़त्म हो गयी और हम जम्मू वापस लौट आये। स्कूल की भागदौड़ में सब कुछ जल्द ही भूल गये, लेकिन हमीदा की याद बनी रही। बाद में हम कई बार कश्मीर गए लेकिन हमीदा हमें दोबारा नहीं मिला। आज मैं देख रही हूँ कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड की ज़मीन के मसले पर जम्मू और कश्मीर के लोगों के बीच घमासान मचा हुआ है, तो सोचती हूँ कि हमीदा आख़िर इस बारे में क्या सोच रहा होगा! क्या वो अभी भी हमारे लिए वही गर्मजोशी और दोस्ताना रवैया रखता होगा। या वो हमें जम्मू का दुश्मन मानता होगा। मैं सोचती हूँ, लेकिन मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाई हूँ।
मानो उग्रवाद की कम आफ़त थी, जो यहाँ के बाशिंदे खुदगर्ज़ नेताओं की बांटने वाली राजनीति के चक्कर में फँस गए। नेता दोनों क्षेत्रों के लोगों के बीच सांप्रदायिक और क्षेत्रीय भावनाएँ भड़काकर नफ़रत और बैर फैला रहे हैं। इसका मकसद जम्मू और कश्मीर के बीच पहले से खिंची खाई को इतना गहरा कर देना है कि ये कभी न पट सके। और फ़ायदा... तुच्छ वोटों का। वरना आप ही सोचिए कि जब राज्य में कुछ ही महीनों में चुनाव होने वाले हैं तो ही इस मसले को इतना तूल क्योँ दिया जा रहा है।
राज्य और केंद्र दोनों सरकारों ने पहले तो हद से ज़्यादा हालात ख़राब हो जाने दिया और अब सर्वदलीय बैठक कर रहे हैं ताकि कोई तात्कालिक हल निकल सके। अचरज होता है कि बिगड़ रहे हालात पर इतनी देर से तवज्जो दी गयी। अब यही उम्मीद की जा सकती है कि मौजूदा प्रयास गंभीर हैं और हर एक पार्टी मसले को सुलझाने के लिए गंभीर प्रयत्न करेगी, ना कि तनावपूर्ण हालात में फ़ायदा उठाने की कोशिश करेगी।
इस बीच नेशनल टीवी पर एक कश्मीरी दुकानदार की व्यथा सुनायी पड़ी, "इन सियासतदानों ने तबाह कर दिया इस रियासत को..."
दुर्भाग्य से जम्मू-कश्मीर का यही आज कटु सत्य है।