किसी आंदोलन का आधार क्या है? पहचान की एक संयुक्त बुनियाद, सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषायी या पारंपरिक समता की नींव। लेकिन, अगर कोई जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के बीच इन्हीं आधारों पर (जैसा अलगाववादी कहते हैं-कश्मीर आंदोलन) समानता की बात करता हैं,तो लोगों को बहुत सी गलत सूचनाएं मिलेंगी। दरअसल, 'कश्मीर' में अलगाववादी (कश्मीर का मतलब सिर्फ कश्मीर,जिसमें जम्मू,लद्दाख का हिस्सा शामिल नहीं होता) कश्मीरियत की बात करते हैं,और इसे ही अपने आजादी के आंदोलन का आधार बताते हैं।
लेकिन,इस मसले पर आगे बात करने से पहले यह जानना जरुरी है कि कश्मीरियत का मतलब क्या है? दरअसल, महाराष्ट्रवाद,पंजाबवाद और तमिलवाद की तरह कश्मीरियत भी एक छोटे से हिस्से के लोगों की साझी सामाजिक जागरुकता और साझा सांस्कृतिक मूल्य है। अलगाववादियों और कश्मीर के स्वंयभू रक्षकों के मुताबिक कश्मीर घाटी में रहने वाले हिन्दू और मुसलमानों की यह साझा विरासत है। लेकिन, सचाई ये है कि जम्मू,लद्दाख और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के पूरे हिस्से और घाटी के बीच कोई सांस्कृतिक समानता नहीं है। तर्क के आधार पर फिर यह कश्मीरियत से मेल नहीं खाता। दरअसल, सचाई ये है कि जम्मू और कश्मीर की संस्कृति में कई भाषाओं और पंरपराओं को मेल है, और कश्मीरियत इसकी विशाल सांस्कृतिक धरोहर का छोटा सा हिस्सा है।
अक्सर, खासकर हाल के वक्त में, अलगाववादी नेता या महबूबा मुफ्ती को हमने कई बार मुजफ्फराबाद, दूसरे शब्दों में सीमा पार के कश्मीर, की तरफ मार्च का आह्वान करते सुना है। लेकिन, हकीकत ये है कि इस पार और उस पार के कश्मीर में कोई सांस्कृतिक, भाषायी और पारंपरिक समानता नहीं है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में रहने वाले मुस्लिम समुदाय का बड़ा तबका रिवाज और संस्कृति के हिसाब से उत्तरी पंजाब और जम्मू के लोगों के ज्यादा निकट है। जिनमें अब्बासी, मलिक, अंसारी, मुगल, गुज्जर, जाट, राजपूत, कुरैशी और पश्तून जैसी जातियां शामिल हैं। संयोगवश में इनमें से कई जातियां पीओके में भी हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के अधिकृत भाषा उर्दु है, लेकिन ये केवल कुछ लोग ही बोलते हैं। वहां ज्यादातर लोग पहाड़ी बोलते हैं,जिसका कश्मीर से वास्ता नहीं है। पहाड़ी वास्तव में डोगरी से काफी मिलती जुलती है। पहाड़ी और डोगरी भाषाएं जम्मू के कई हिस्से में बोली जाती है।
हकीकत में, दोनों तरफ के कश्मीर में सिर्फ एक समानता है। वो है धर्म की। दोनों तरफ बड़ी तादाद में मुस्लिम रहते हैं। तो क्या यह पूरी कवायद, पूरा उबाल धार्मिक वजह से है? इसका मतलब कश्मीरियत की आवाज,जो अक्सर कश्मीर की आज़ादी का नारा बुलंद करने वाले लगाते हैं,वो महज एक सांप्रदायिक आंदोलन का छद्म आवरण यानी ढकने के लिए है। और अगर ये सांप्रदायिक नहीं है, तो क्यों कश्मीरियत की साझा विरासत का अहम हिस्सा पांच लाख से ज्यादा कश्मीरी पंडित इस विचार के साथ नहीं हैं, और दर दर की ठोकर खा रहे हैं। विडंबना ये है कि भाषा,रहन-सहन-खान पान और सांस्कृतिक नज़रिए से कश्मीरियत की विचारधारा में जो लोग साझा रुप में भागीदार हैं,वो कश्मीरी पंडित ही अब घाटी से दूर हैं।
Monday, August 25, 2008
क्या कश्मीर आंदोलन वास्तव में कश्मीरियत के लिए है?
Posted by Sheetal Rajput at 10:17 AM
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16 comments:
सियासत की बिछी शतरंज के मुहरे समझ हम को
जिधर म़र्जी उठावे या बिठावे धर्म का चक्कर
... पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़ल से
असली मुद्दे गौण हैं और गौण मुद्दे खास। आज इसी तरह हो रही आंदोलन की बकवास। बधाई का पात्र है सचाई को सामने लाने का यह प्रयास।
कश्मीर में जो होरहा है, बहुत अफसोसनाक है, क्या ज़मीन की चाह इंसान की जानों से बड़ी है? सियासी पार्टियाँ अपने अपने मुफाद के लिए बेगुनाह लोगों की परवाह भी नही कर रही...बहुत ही शानदार पोस्ट. थैंक्स
इस पार के कश्मीर आैर उस पार के कश्मीर की भाषा व संस्कृति की जानकारी बेहद संजीदगी के साथ देते हुए आपने कश्मीरी पंडितों के दर्द को बखूबी उठाया है लेकिन इससे सियासतदाआें को क्या लेना-देना।
दो दिन पहले मुफ्ती आज तक पर अपने इंटरव्यू में क्या कश्मीर भारत का हिस्सा है ?इस सवाल का जवाब टालती रही या घुमा फिर कर देती रही .....ndtv पर जम कर बहस हुई....हमें ये समझना होगा की कश्मीर एक बड़ा मुद्दा है ओर इसे हमारी सरकार को अपनी प्राथमिकता में रखना होगा.....
शीतल जी,
कश्मीर में आन्दोलन कहाँ है? स्पॉसर्ड न्यूसेंस को आन्दोलन की श्रेणी में रखा कैसे जा सकता है? कश्मीर समस्या दरअसल कश्मीरी अस्मिता या पहचान की लडाई भी नहीं और अगर एसा है तो कश्मीरी पंडित अपनी आवाज न तलाश कर रहे होते वरन वो भी पाकिस्तानी झंडा लिये आजादी-आजादी का रिकॉर्ड बजाते दीखते...
आप सत्य कह रही हैं कि मुट्ठी भर लोगों नें बडा सा प्रश्नचिन्ह टाँगा हुआ है जिस पर विश्व भर नें अपने अपने विश्लेषण किये हुए हैं "प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी..." वाली बात है।
यह राजनीतिक समस्या धर्म को ढाल बना कर पनपी है और दृढ राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही इसका निदान है। किंतु महबूबा जैसे नेता जिस जमात का नेतृत्व करते हों वह....
***राजीव रंजन प्रसाद
महबूबा मुफ्ती कश्मीर की महिला आतंक वादी है ....जो दिल्ली में बैठकर ही भारत पर अपने मुँहगोलों से हमले करती है....और हम इस डर से चुप बैठे रहते है कि कहीं कश्मीर का आंदोलन औऱ उग्र रूप न धारण कर ले .... पाकिस्तान के नाम का राग अलापने वाले कश्मीरियों को अभी दूर के ढोल बहुत सुहावने लग रहे है ....लेकिन भारत की जनता की गाढी कमाई पर जीने वाले इन परजीवियों को जब पाकिस्तान में दरिद्रता भरे दिन बिताने पड़ेंगे तब इन्हें समझ में आयेगा....
बेहतरीन लिखा है आपने
kashmeer par sirf aur sirf hindustanion ka haq hai.kashmeer ho ya kearal,gujraat ho ya bangaal har jagah sirf hindustaani hai.
kashmir samasya ka is se adhik sthool vishleshan nahee ho sakta..shayad ye tippani samasya ke aaspaas se bhi ho kar nahee gujartee..
अच्छी पोस्ट
आपने सही कहा, अब समय आ गया है कि कश्मीर पर केन्द्र सरकार को कडा निर्रण्य लेना चाहिये
कश्मीर को समझने का नया नजरिया आपके ब्लॉग में झलकता है। जम्मू,और कश्मीर की साझी विरासत है : जम्मू कश्मीर। लेकिन सियासतदानों नें जम्मू और कश्मीर के बीच ऐसी खाई की है। ऐसा लगता है कि जमीन का एक सपाट मैदान नहीं बल्कि दोनों शहर दो पहाड़ है। जिन्हें पर टंगी नट की रस्सी पर प्रांत की जनता चल रही है। ऐसी मुश्किल राह में शांति कहा नसीब हो गयी। ये कोई नहीं जानता। यह दौर जल्दी खत्म नहीं हुआ तो लोग ये कहना छोड़ देंगे की धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहीं हैं यहीं है...
भरत कुमार
शीतलजी,
आपके विचार समकालीन हैं और यही सचाई है। देश में जितनी भी ताकतें आंदोलन के नाम पर अलगाववाद का सहारा ले रही हैं, उनके खाने के दांत अलग हैं और दिखाने के अलग। नक्सलवाद के मसले पर भी मैंने यही कुछ देखा है, समझा है। दरअसल, इन सभी आंदोलनों में धन की ही महत्वपूर्ण भूमिका है। आंदोलन के नाम पर मुट्ठी भर लोग भारतीय जनमानस का वैचारिक और भावनात्मक शोषण करते हैं। नक्सलियों के मामले में भी यही है। १५००० करोड़ रुपयों का रेड कारिडोर है यह। खैर, इस प्रकार के विचार मुझे उत्साहित करते हैं उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और साई वार में संलग्न उन बुद्धिजीवियों के खिलाफ जो इन अलगाववादी ताकतों के मोहताज हैं।
अंजीव पांडेय, पत्रकार
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