मुझे मालूम है कि आप उत्सुक हैं और दिमाग़ पर ज़ोर डाल रहे होंगे। हालाँकि महाभियोग का सामना कर रहे पाकिस्तान के फ़ौजी-शासक और डेढ़ साल पहले लाहौर की उस ख़ूबसूरत शाम के बीच कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, लेकिन फिर भी दोनों क़रीबी तौर पर जुड़े हुए हैं। आइए, मैं आपको बताती हूँ कि माजरा क्या है।
वे सभी पत्रकार जिन्होंने अपने कैरियर में कभी पाकिस्तान की यात्रा की है, ख़ासकर भारतीय, उन्हें पाकिस्तानी फ़ौज के तौर-तरीकों की झलक ज़रूर मिलती है, और साथ ही इसकी कुख्यात व हर जगह फैली हुई ख़ुफ़िया शाखा आईएसआई की भी। और हम लोग भी इसका अपवाद नहीं थे! वह साल था 2007, और महीना था जनवरी। परवेज़ मुशर्रफ़ सत्ता पर काबिज़ थे और पूरी तरह पाकिस्तान का नेतृत्व कर रहे थे। आख़िरकार यह राष्ट्रपति पद पर उनका चुनौती-रहित और पूरी तरह तानाशाही भरा लगातार आठवाँ साल था, साथ ही वे वक़ीलों के व्यापक विरोध-प्रदर्शन से महीनों दूर थे जो अंततः उनके पतन का और पाकिस्तान में नए राजनीतिक समीकरण के उभरने का कारण बना। वर्दी और पाकिस्तानी फ़ौज की पूरी वफ़ादारी मज़बूती और दृढ़ता से उनके पीछे थी। पूर्व-जनरल के ख़िलाफ़ एक शब्द भी बर्दाश्त नहीं किया जाता था और सार्वजनिक तौर पर उनके विरोध में कुछ भी कहने से लोग डरते थे।
मैं पत्रकारों के उस समूह का हिस्सा थी जो दोनों देशों के बीच चल रही बातचीत के अहम पड़ाव को कवर करने इस्लामाबाद गए थे। वार्ता के बाद बाक़ी सभी घर लौटने की तैयारी करने लगे, लेकिन मैं और मेरी कैमरापरसन, जो इत्तेफ़ाक से एक महिला है, दोनों ने अपना दौरा एक दिन के लिए बढ़ा दिया और लाहौर जाने का फ़ैसला किया। मेरे दिमाग़ में एक दिलचस्प स्टोरी थी और शहर में कुछ दोस्तों से मुलाक़ात भी करनी थी। लाहौर के लिए निकलने से ठीक पहले हम रावलपिण्डी में पाकिस्तानी सेना के हेडक्वार्टर भी गए, ताकि मुशर्रफ़ के साथ इंटरव्यू का वक़्त तय किया जा सके। मुशर्रफ़ शहर से बाहर थे और हमारे पास महज़ एक दिन ही था, इस वजह से इंटरव्यू नहीं हो सका। हमने अपना सामान बांधा और टैक्सी लेकर लाहौर के लिए निकल पड़े। शाम अभी शुरू ही हुई थी और हमें बताया गया कि इस्लामाबाद-लाहौर ऐक्सप्रेस-वे के ज़रिए लाहौर का रास्ता 5-6 घण्टे का है। ड्राइवर एक शालीन इंसान था और जब उसे यह महसूस हुआ है हम भारतीय हैं, तो उसने कार के स्टीरियो पर नए हिन्दी गाने बजा दिए।
सफ़र आरामदेह रहा और ठण्ड के मौसम की सर्द हवाओं में काँपती हुई मैं सोचती रही कि क्या यह वही देश है जहाँ मैं पहले तीन बार आ चुकी हूँ, जिस दौरान हर बार मुझे किसी ख़ास शहर के अन्दर या दो शहरों के बीच सफ़र करने में काफ़ी बन्धन महसूस हुआ। क्या यह दोनों देशों के बीच सुधरी बातचीत और उससे पैदा हुए दोस्ताना मिज़ाज की वजह से था? क्या आख़िरकार दोनों देशों के बीच भरोसा पनपने लगा था? मैं सोचती रही।
देर रात हम लाहौर पहुँचे, बिना किसी मुश्किल के गैस्ट-हाउस में कमरा लिया और मेरा आश्चर्य फिर से बढ़ गया। लाहौर में एक दोस्त, जो पाकिस्तान के एक मुख्य टीवी चैनल में काम करता है, हमें डिनर के लिए बढ़िया रेस्टोरेंट में ले गया – जिसके बारे में हमें बताया गया कि विभाजन से पहले वहाँ वेश्यालय हुआ करता था! रेस्टोरेंट, जिसका नाम “कुकूज़ डेन” था, ने ऐतिहासिक शहर लाहौर और ख़ूबसूरती से चमकती हुई बादशाही मस्जिद का का आकर्षक नज़ारा पेश किया। पराठों और लज़ीज़ पंजाबी साग के कई दौर चलते रहे और हम लोग बतियाते रहे, कुछ देर के लिए मैं यह पूरी तरह भूल गयी कि मैं लाहौर में बैठी हूँ, घर से मीलों दूर एक ग़ैर-दोस्ताना पड़ोसी मुल्क में। सब कुछ पूरी तरह सामान्य लग रहा था, न कोई हमें देख रहा था और न ही कोई पीछा कर रहा था।
दूसरे दिन दोपहर में हमारी फ़्लाइट थी और इसलिए हमने अगली सुबह बेगम नवाज़िश अली, जिन्हें अली सलीम के नाम से भी जाना जाता है, के साथ एक एक्सक्लूज़िव इंटरव्यू शूट करने का फ़ैसला किया। बेगम पाकिस्तान के मशहूर क्रॉस-ड्रेसिंग टीवी होस्ट हैं। हमने शहर के केन्द्र में एक पार्क को इंटरव्यू शूट करने के लिए चुना और किसी ने न तो हमें रोका, न ही हमारे बारे में ज़्यादा मालूमात हासिल करने की कोशिश की। और अब मेरे आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी!! लेकिन, रुकिए! जल्दी ही कुछ घटित होने वाला था।
जैसे ही मैंने टहलते हुए अली सलीम के साथ इंटरव्यू शुरू किया, मुझे दखलअन्दाज़ी के शुरुआती संकेत मिलने लगे। एक लम्बा, पतली दाढ़ी वाला आदमी सादे कपड़ों में अचानक प्रकट हुआ और उसने पार्क में हमारा पीछा करना शुरू कर दिया। अली सलीम या बेगम नवाज़िश को मुशर्रफ़ को अक्सर भला-बुरा कहने के लिए जाना जाता है, वह मुशर्रफ़ के ख़िलाफ़ कुछ-न-कुछ कह सकता था।
इस बात ने उस आदमी को हमारे कुछ और इंच नज़दीक ला दिया। और जल्दी ही पार्क में हम चारों लोगों के बीच चूहे-बिल्ली जैसी दौड़ शुरू हो गयी। एक तरह से यह सब दिलचस्प था, लेकिन साथ ही काफ़ी चिंताजनक भी। खीझकर और परेशान होकर हमने तेज़ी से इंटरव्यू ख़त्म किया और पार्क से निकल गए। जब हम पार्क के बाहर अपने पत्रकार मित्र राशिद (बदला हुआ नाम) का इंतज़ार कर रहे थे, वह आदमी हमारे इधर-उधर चक्कर लगाता रहा।
राशिद की कार देखकर हम लोगों को बड़ी राहत मिली। हम तुरंत कार में सवार हुए और उसे पूरा वाक़या सुनाया। वह आदमी अभी भी नज़र रखे हुए था और राशिद की कार का पीछा कर रहा था। राशिद हमें सीधे अपने टीवी ऑफ़िस ले गया और फ़ोन पर इधर-उधर बात करते हुए हमें अपने केबिन में बिठा दिया। हमारी फ़्लाइट के लिए अभी भी तीन घंटे बाक़ी थे और थोड़ी ख़रीदारी करना चाहते थे। राशिद ने हमसे वादा किया था कि वह हमें बाज़ार ले जाएगा, लेकिन अब उसने हमसे सामान की एक सूची बनाने को कहा और अपने सहायक को सामान लाने का ज़िम्मा सौंप दिया। वह बहुत तनाव में दिखाई दे रहा था, और अपने तनाव को छुपाने के लिए इधर-उधर की बातें कर रहा था। हालात एक साथ ही अजीबो-ग़रीब, दिलचस्प और तनावपूर्ण थे। उसने हमें अपने केबिन की कुर्सियों से हिलने नहीं दिया और जैसे ही हमारी उड़ान का वक़्त नज़दीक आया, उसने हमें सीधे हवाई-अड्डे पर छोड़ने का इंतज़ाम भी किया। और हाँ, वह शख़्स अभी भी हमारा पीछा कर रहा था और यह तय करने की कोशिश कर रहा था कि हम ऐअरपोर्ट के अलावा और कहीं न जा सकें। घर लौटने के बाद कई महीनों तक मुझे राशिद की तरफ़ से कोई मैसेज नहीं मिला, ऐसा लगता था मानो वह एक भारतीय पत्रकार से दोस्ती करने की वजह से अभी तक डरा हुआ था। बाद में हमें पता चला कि रावलपिण्डी के आर्मी हैडक्वार्टर के निकलने के वक़्त से ही लगातार हमारा पीछा किया जा रहा था! उस वक़्त परवेज़ मुशरर्फ़ और पाकिस्तानी फ़ौज का इतना डर था!
आज, जबकि परवेज़ मुशर्रफ़ को पाकिस्तान में लोकतंत्र को खोखला करने और 700 मिलियन अमरीकी डॉलर का दुरुपयोग करने के आरोपों के चलते नवाज़ शरीफ़-ज़रदारी द्वारा प्रायोजित महाभियोग का सामना करना पड़ रहा है; मैं सोच रही हूँ कि क्या वाक़ई उस तानाशाह के राजनीतिक ख़ात्मे का वक़्त नज़दीक आ गया है, जिसने एक बार अपने बारे में कहा था कि वह लोकोक्ति की उस बिल्ली की तरह जिसके पास नौ ज़िन्दगियाँ होते हैं? क्या इस बार वे बच पाएंगे? फ़ौज का रुख़ क्या होगा? क्या उसने भी उम्मीद छोड़ दी है या फिर उसकी झोली में कुछ और आश्चर्य भी है – अक्टूबर 1999 में सत्ता पर किए गए कुख्यात कब्ज़े की तरह? विश्लेषकों को कहना है कि यह ताबूत में आख़िरी कील है। लेकिन मुशर्रफ़ और उनके बदनाम अड़ियलपन को जानने की वजह से, और इस बात के चलते कि अभी भी मुशर्रफ़ के पास नेशनल असेम्बली और प्रधानमंत्री को बर्ख़ास्त करने की ताक़त है – पहले से कुछ भी कहना बहुत मुश्किल है। हालाँकि ऐसा होने की संभावना भी बहुत कम है क्योंकि इसके लिए पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की सहमति ज़रूरी है और यह सबको मालूम है कि मुशर्रफ़ के साथ उसका छत्तीस का आंकड़ा है।
अभी के लिए इतना ही... बाक़ी जब हम अगली बार मिलेंगे!!
You are here: Home > स्मृतियाँ > परवेज़ मुशर्रफ़ और लाहौर की एक शाम
Monday, August 11, 2008
परवेज़ मुशर्रफ़ और लाहौर की एक शाम
Posted by Sheetal Rajput at 11:41 AM
Labels:
पाकिस्तान,
स्मृतियाँ
Social bookmark this post • View blog reactions
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
11 comments:
अच्छा लगा पाक और मियां मुश के बारे में कुछ और पता चला। लेकिन सामान वो बंधु एयरपोर्ट पर ले आए थे कि नहीं ये आपने नहीं बताया।
http://nitishraj30.blogspot.com
http://poemofsoul.blogspot.com
आपका यात्रा वर्तांत दिलचस्प है अब तक ....थोड़ा पकिस्तान की गलियों में ओर घुमाइए ....ओर वहां के बाशिंदों की सोच का एक आध नजारा भी....
आपके प्रस्तुतिकरण की तरह आपकी लेखनी भी कमाल की है....
बहुत अच्छी पोस्ट.....
अच्छा और प्रभावी लिखा है। बधाई स्वीकारें।
रोचक जानकारी!! बढ़िया यात्रा वृतांत..आभार.
shabdo se visuals dikha diye aapne.badhai
लाहौर में आपकी एक शाम का किस्सा समूची मुशर्रफ गाथा का एहसास कराता है। संस्मरण अब कम लिखे जा रहे हैं। आप इस सिलसिले को जारी रखिए।
यह एक अच्छा सीरीज हो सकता है अगर आप इसे किस्तों में पोस्ट करें। मैंने 10-12 साल पहले जनसत्ता के साहित्य विशेषांक(तब वो साल में एक वार इंडिया टुडे के साहित्य विशेषांक की तरह आती थी)में चाणक्य सेन की पाकिस्तना डायरी पढ़ी थी। उसमें काफी गहराई थी। हिंदी ब्लॉग में इस तरह के लेखन का घनघोर अभाव है, आप चाहें तो इसे भर सकती है।
पता नहीं पाकिस्तान का क्या होगा..क्या सेना मुशर्रफ का साथ दगी..या फिर लोकतंत्र का मतलब बाद में कट्टरपंथी जमातों का शासन तो नहीं हो जाएगा-कहना मुश्किल है। लेकिन एक बात है कि आज का पाकिस्तान जनरल अयूब खान या जनरल जिया के पाकिस्तान से भिन्न है। सेटेलाईट टेलिविजन और मोवाईल टेलिफोन ने लोगों में लोकतांत्रिक भावना पुष्ट की है। साथ ही मीडिया भी सरकार से डरता नहीं-अदालत तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को ही हटाने को तैयार हो जाती है। कुल मिलाकर डेमोक्रेसी की आंधी तो आई है लेकिन सेना अभी तक भारत का भय दिखाकर सत्ता की चाबी अपने पास रखती आई है। एक वार भारत का भय खत्म हो जाए तो सेना जनता का सामना नहीं कर पाएगी। कुछ लोग कहते हैं कि एटम बम आने से पाकिस्तान की जनता बोल्ड हो गई है-अब सेना उसे ये झांसा नहीं दे सकती कि भारत निगल जाएगा। तो क्या लोकतंत्र का सही समय आ गया है?दिक्कत हैं कि ये अभी भी मुश्किल सवाल है।
Kissagoi ki terah likha hai, achha bhi hai. Lekin ek blog post ke liye ye thora lamba hai.
Aisi lambi post ko choti choti kisht ke roop me post karengi to jyada maja aayega parne wale ko.
Type ek saath kijye uske baad divide karke alag alag din ke liye schedule kar dijye.
very good sheetal
बहुत अच्छा लिखा है, शीतल जी आपने। आपकी भाषा में जो चुस्ती और प्रवाह है, वह अब कम देखने को मिलता है। पाकिस्तान के संस्मरण जारी रखें।
Post a Comment