उस ख़ुमार का उफ़ान जारी है, जिस लम्हे की तस्वीरें अभी भी उल्लास और गर्मजोशी के उस माहौल को ज़िन्दा कर रही हैं जिससे 121 करोड़ लोगों का यह देश गुज़रा था, और अब भी गुज़र रहा है। मैंने न्यूज़रूम में अपनी टीम के साथ भारत की ऐतिहासिक विश्वकप जीत के उन क्षणों को बांटा। पूरे देश की तरह मैं अभी भी उस नशे में हूँ। जैसे-जैसे हम विश्वकप जीत के बाद के वक़्त के लिए ख़ुद को तैयार कर रहे हैं, एक भावनात्मक ख़ालीपन का अहसास भीतर छाता जा रहा है।
मैं मुक़ाबले के बाद की चर्चा को टीवी पर देख रही थी, जिसमें विश्वकप के बाद के परिणामों पर काफ़ी अहम सवाल उठाए जा रहे थे। विश्वविजेता का ताज सिर पर पहनने के बाद क्या हम अब अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट में बादशाहत स्थापित करने के लिए तैयार हैं। ज़्यादातर लोगों का मानना है कि जहाँ तक बल्लेबाज़ी का सवाल है, हमारा कोई सानी नहीं है। सचिन तेन्दुलकर जैसे महानतम खिलाड़ी, वीरेन्द्र सेहवाग, गौतम गंभीर, युवराज सिंह, सुरेश रैना, और हाँ केप्टन कूल महेन्द्र सिंह धौनी इस बल्लेबाज़ी क्रम की शोभा हैं। यह हमें अविजित एकदिवसीय टीम का तमग़ा दिलाने के लिए पर्याप्त होना चाहिए, टेस्ट मुक़ाबलों में भी शीर्ष पर बने के लिए यह काफ़ी होना चाहिए। हालाँकि धोनी की टीम को अपनी गेंदबाज़ी चमकाने की निश्चित तौर पर ज़रूरत है, जो कि इस शृंखला में और पिछली दूसरी शृंखलाओं में लगातार उम्दा प्रदर्शन करने में नाकाम रही है। ज़हीर ख़ान को छोड़कर हमारे गेंदबाज़ी आक्रमण में ज़रूरी धार की कमी नज़र आती है। हरभजन को भी एक और फिरकी गेंदबाज़ की मदद की ज़रूरत है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि युवराज, जो इस शृंखला में ‘मैन ऑफ़ द सीरिज़’ रहे हैं, ने अपनी ऑलराउण्डर की भूमिका को मज़बूत किया है। हमने उन्हें समान कुशलता और दक्षता से बल्लेबाज़ी, गेंदबाज़ी और फ़ील्डिंग करते हुए देखा है। लेकिन एक मज़बूत और आक्रामक गेंदबाज़ी दुनिया में बादशाहत का डंका बजाने के लिए बेहद ज़रूरी है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गेंदबाज़ी की कमज़ोरी ही एक समय की अविजित ऑस्ट्रेलियाई टीम के पतन का कारण है।
एक और चुनौती गुरु गैरी के उचित उत्तराधिकारी को खोजने की है। गैरी कर्स्टन ने हाल में अपना तीन साल का कार्यकाल पूरा किया है। गैरी कर्स्टन का शांत स्वभाव न केवल भारतीय टीम के साथ मेल खाया बल्कि कप्तान धोनी के साथ भी उनकी खूब जोड़ी जमी, जिनकी अगुआई में भारतीय टीम ने इतिहास रच डाला। भारतीय टीम के लिए कोच का मुद्दा हमेशा से संवेदनशील रहा है, और इस बात को ध्यान में रखते हुए यह बात इस बार भी महत्वपूर्ण है। इसके अलावा यह भी अहम होगा कि धोनी अपने आसपास की नयी चुनौतियों से अब कैसे रुबरु होते हैं और उनका कैसे सामना करते हैं। इसमें ही एक चुनौती नए कोच से उनके रिश्ते और समीकरण भी है।
Sunday, April 3, 2011
विश्व कप में जीत की मदहोशी के बाद...
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वर्ल्ड कप
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Sunday, March 13, 2011
मशाल को जलाए रखें !
आप सभी को तहे-दिल से नमस्कार! हाँ, मैं काफ़ी समय से ब्लॉग-जगत से दूर थी, वाक़ई एक लम्बे अरसे से, कम-से-कम ब्लॉगिंग के मामले में तो बहुत लंबे अरसे से।इन गुज़रे दो सालों में मैं काम-काज में मसरूफ़ रही और मुझे लगता है कि इस दौरान मैंने लेखन और चिन्तन-मनन में भी एक विराम लिया। हम सभी लोग जो अक्सर लिखते रहते हैं, वे जानते हैं कि लेखन एक रचनात्मक काम है जो अपनी ही रफ़्तार से चलता है, अपनी ही लहर में और अपने ही मनमौजी तरीक़े से। आप इसपर अपना हुक़्म नहीं चला सकते। यह तभी होता है, जब इसे होना होता है।
अगर घटनाओं की बात करें, तो पिछले दो सालों में जबसे मेरी क़लम थमी है काफ़ी कुछ घटित हुआ है। अमेरिकी फ़ौजियों ने आख़िरकार ईराक़ी सरज़मीन को छोड़ दिया है और अपने पीछे वे बर्बादी का ऐसा मंज़र छोड़ गए हैं, जिसका अन्त नज़र नहीं आता। मिस्र ने हाल में इतिहास के पन्नों पर नई इबारत लिखी है और लीबिया इसकी कगार पर है। पाकिस्तान मुशर्रफ़ की तानाशाही से निकलकर और भी ज़्यादा अस्तव्यस्तता की ओर बढ़ चुका है... हिंसा और राजनीतिक हत्याएँ रोज़मर्रा की बात हो गई हैं। इसी दौरान श्रीलंका ने प्रभाकरन के युग और भयभीत करने वाले एलटीटीई का अन्त देखा है, जबकि नेपाल अभी भी लोकतन्त्र की ओर जाने वाले मुश्किलों से भरे रास्ते में लड़खड़ा रहा है और संघर्ष कर रहा है। हमने सैन्य और आर्थिक तौर पर चीन को और भी अधिक ताक़तवर होते देखा है, जबकि अमेरिका बड़े पैमाने पर मध्य-पूर्व एशिया व चीन में आए बदलावों और घरेलू मोर्चे पर बेरोज़गारी जैसी समस्याओं के चलते तनावग्रस्त है, और राष्ट्रपति ओबामा की लोकप्रियता सबसे निचले स्तर को छू रही है।
अपने देश में हमने राजनीति और नौकरशाही के गलियारों में घटित होते हर काण्ड के बाद भ्रष्टाचार को भयावह तरीक़े से बढ़ते हुए देखा है। हमने कॉमनवेल्थ गेम्स ऑर्गनाइज़िंग कमेटी की कारगुज़ारियों से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की प्रतिष्ठा को दांव पर लगते देखा है। हमने २जी काण्ड को देश के लोकतन्त्र की बुनियाद को हिलाते हुए देखा है, जिसने राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों और मीडिया लॉबीइस्टों के बीच फल-फूल रही सांठ-गांठ को उजागर करके रख दिया। हमने लोकतन्त्र के केन्द्र-बिन्दु देश के प्रधानमन्त्री को सरकार में घुन की तरह लगे भ्रष्टाचार और इससे जुड़े हर मामले को एक मूक दर्शक की तरह निहारते देखा है, जिस दौरान हर काण्ड में उनके कई मंत्री और मुख्यमंत्री गले तक धंसते नज़र आए। साथ ही हमने उन्हें निरीह भाव से माफ़ी मांगते और सरकार के खस्ता हालात व उससे उठती सड़ांध पर लाचार होते भी देखा है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय तौर पर वाक़ई बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण और निराशाजनक हालात हैं।
तो क्या आशा की कोई किरण नज़र नहीं आती, क्या ज़रा भी उम्मीद नहीं है? मुझे शिद्दत से महसूस होता है कि इसका जवाब ख़ुद हमारे भीतर ही है। क्या वे बिना हथियारों के सड़कों पर जद्दोजहद करते मिस्र के आम लोग नहीं थे जो बदलाव की बयार लाए और उस देश में क्रान्ति की अलख जगाई? और यहाँ भी क्या यह आम आरटीआई कार्यकर्ताओं का अदम्य साहस नहीं है, जो शान्त और दृढ़ भाव से हमारे भ्रष्ट प्रतिनिधियों और इस प्रदूषित व्यवस्था से सवाल पूछ रहे हैं और उनकी पड़ताल कर रहे हैं? यह लिखने की ज़रूरत नहीं है कि इन पड़तालों ने हमारे दौर के सबसे चौंकाने वाले खुलासे किए हैं। ये निर्भीक स्त्री-पुरुष बिना किसी निहित स्वार्थ के ऐसा कर रहे हैं, और कई बार ख़ुद अपनी जान की क़ीमत पर भी। महाराष्ट्र में ऐसे कार्यकर्ताओं की हत्या इतनी आम हो गई है कि वहाँ सरकार को एक पुलिस कमेटी गठित करनी पड़ी, जो इन हिम्मतवर लोगों की आपराधिक शिकायतों और सुरक्षा की अर्ज़ियों पर ग़ौर करे। उम्मीद है कि दूसरे राज्य भी इससे कुछ सीखेंगे और अपने यहाँ भी ऐसा ही करेंगे, ताकि पार्श्व से आती ये आवाज़ें अपनी साहस और सामाजिक सक्रियता के यह यात्रा बेरोकटोक बेहिचक जारी रख सकें।
तो मित्रों, जब तक सामाजिक बदलाव के ये सचेत सैनिक यहाँ या दुनिया में कहीं और यह मशाल जलाए रखेंगे, उम्मीद ज़िन्दा रहेगी और एक बेहतर भविष्य को इंगित करेगी।
आखिर में नियमित लिखने के वादे के साथ....और हां आपकी प्रतिक्रियाओं के इंतजार के बीच....
शीतल
Posted by Sheetal Rajput at 9:34 AM 5 comments
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ब्लॉगिंग में वापसी
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Tuesday, January 20, 2009
बराक ओबामा और ईराक़ की अधूरी दास्तान
जो तस्वीर आप यहाँ देख रहे हैं, वह छः साल पहले के ईराक़ की कड़वी हक़ीक़त को बयान करती है। बदनसीबी से आज भी हालात वैसे ही हैं। यह तस्वीर मैंने अप्रैल 2003 में ईराक़ पर अमरीकी हमले के महज़ एक हफ़्ते बाद ली थी। बग़दाद के एक प्रमुख बाज़ार में एक दुकानदार उन अमरीकी सैनिकों के साथ आगबबूला होकर झगड़ रहा था, जो उसकी दुकान के ठीक बाहर तैनात थे। वह उन्हें अपनी जगह से हटाना चाहता था। वे आधुनिक हथियारों से लैस थे और वह ख़ुद खाली हाथ खड़ा था। लेकिन उसे अपनी ज़िन्दगी का कोई डर नहीं था। मुझे लगता है कि यह तस्वीर साफ़ तौर पर ईराक़ के कभी न हार मानने वाले आक्रामक जज़्बे को दर्शाती है। इस प्राचीन सभ्यता के निवासी, जिसे हम मेसोपोटामिया के नाम से जानते हैं, इतिहास में इतना ख़ून-खराबा और हिंसा देख चुके हैं कि अब उनके ख़ून में ज़रा भी भय बाक़ी नहीं बचा है। जॉर्ज डब्ल्यू बुश और उनके सहयोगियों ने ईराक़ी मानस व देश के जटिल सामाजिक ढाँचे के प्रति अपनी नासमझी और अदूरदर्शिता के चलते ऐसे उलझन भरे हालात पैदा कर दिए हैं, जिन्हें सुलझाना नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए काफ़ी मुश्किल भरा साबित होगा।
बुश जूनियर का 2003 का "ऑपरेशन ईराक़ी आज़ादी" दरअसल "ऑपरेशन ईराक़ी बर्बादी" निकला और उनके कार्यकाल की सबसे चुभन-भरी ज़िम्मेदारी साबित हुआ। पहली बात तो यह कि इसने स्वतंत्रता-प्रेमी ईराक़ियों की आज़ादी के एहसास को तार-तार कर दिया और दूसरा, इसने ईराक़ियों के तीन अहम तबक़ों - शिया, सुन्नियों और कुर्दों के बीच की खाई को और भी चौड़ा कर दिया। कुर्दों का भरोसा जीतने और उनको दबाने व अलग-थलग रखने की ऐतिहासिक ग़लती को सुधारने की जल्दबाज़ी में बुश सरकार ने अमेरिका द्वारा बहाल किए गए लोकतंत्र का एक बड़ा हिस्सा कुर्दों के हवाले कर दिया। ऐसा करके उन्होंने शिया और सुन्नी समुदाय को दरकिनार कर दिया। साथ ही यह क़दम उन्हें ईराक़ी गणतंत्र के लिए कुर्दों का विश्वास दिलाने में भी बुरी तरह नाक़ामयाब रहा। कुर्द, जो हमेशा से ख़ुद को एक अलग कौम समझते आए हैं, लोकतांत्रिक और संगठित ईराक़ के अमेरिकी सपने से इत्तेफ़ाक नहीं रखते हैं।
अमरीकी हुकूमत बाक़ी दो समूहों - देश के बहुसंख्यक शियाओं और अल्पसंख्यक सुन्नियों के बीच संतुलन स्थापित नहीं कर सकी। शिया आरोप लगाते हैं कि उन्होंने सुन्नियों का साथ दिया, जिन्हें वे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं और सुन्नी, जो अभी तक अपने सबसे ताक़तवर नेता सद्दाम हुसैन के पतन का घाव सहला रहे हैं, अमेरिका पर शिया और कुर्द समुदाय की तरफ़दारी का आरोप मढ़ते हैं। इसका परिणाम है बुरी तरह बँटा हुआ और अस्त-व्यस्त ईराक़, जो हर पल उबल रहा है और गृह युद्ध के मुहाने पर खड़ा है। आत्मघाती हमले और साम्प्रदायिक टकराव हर रोज़ की बात हो गए हैं और ईराक़ में तैनात एक लाख पैंतालीस हज़ार से ज़्यादा अमेरिकी सैनिक आम ईराक़ियों का विश्वास और सहयोग जीतने में विफल रहे हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए आगे काफ़ी चुनौती भरा काम है। उदारवादी होने की वजह से ओबामा ने ईराक़ पर अमेरिकी हमले की हमेशा मुख़ालफ़त की है और बाद में बदहाल ईराक़ में बुश हुकूमत की नीतियों की कड़ी आलोचना की है। पिछले साल के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उन्होंने अपने एक मशहूर भाषण में कहा था - "मैं 2002 में इसके ख़िलाफ़ था, 2003 में भी, 2004, 2005, 2006, 2007 और 2008 में भी; और 2009 में मैं इस युद्ध को ख़त्म कर दूंगा।" यहाँ तक कि ओबामा ने ईराक़ से सभी अमरीकी सैनिकों को वापस बुलाने की 16 महीने की डेडलाइन भी तय कर ली है। हालाँकि सुरक्षा को लेकर वहाँ के नाज़ुक हालात को देखते हुए विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिकी सैनिकों के लौटने के बाद ईराक़ में गृह युद्ध जैसी स्थिति हो सकती है। और यही ओबामा के लिए बड़ी चुनौती है - अपने सैनिकों को हटाने के साथ ही ईराक़ में लोकतंत्र बरक़रार रखना और पूरी तरह नहीं तो कम-से-कम आंशिक तौर पर ही बुरी तरह विभाजित ईराक़ी समाज के तीनों वर्गों के बीच शांति बनाए रखना, ख़ास तौर पर शिया और सुन्नी समुदाय के बीच।
ज़ाहिर तौर पर व्हाइट हाउस में बदलाव की लहर पर सवार होकर आए इस सैंतालीस वर्षीय अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए यह इतना आसान नहीं होगा। और केवल अमेरिका ही नहीं है जो बदलाव की उम्मीद से ओबामा को निहार रहा है। सारी दुनिया की निगाहें ओबामा की तरफ़ हैं और बाक़ी दुनिया की तरह ही ईराक़ भी बदलाव के लम्हों का इंतज़ार कर रहा है। ईराक़ अपनी दास्तान पूरी होने की बाट जोह रहा है... आज़ादी की ओर क़दम बढ़ाने के लिए और स्थायी शांति पाने के लिए।
Posted by Sheetal Rajput at 7:21 PM 29 comments
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ईराक़,
बराक ओबामा
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Saturday, January 17, 2009
आध्यात्मिक यात्रा - २
यह उन कुछ बिरले विचारों में से एक था जो काफ़ी बेपरवाह और बेतरतीब तरीक़े से शुरू होते हैँ, और इससे पहले की आप गंभीरता से इनपर ग़ौर करें, ये आपके दिलोदिमाग़ पर पूरी तरह छा जाते हैं। मैं प्राचीन पवित्र वाराणसी (बनारस) नगरी का विवरण पढ़ रही थी, जब जाने-माने अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन की एक उक्ति ने मेरा ध्यान अपनी तरफ़ खींचा, "बनारस इतिहास से भी प्राचीन है, परम्परा से भी पुराना है, यहाँ तक कि मिथकों से भी पहले का है, अगर उन सभी को साथ में इकट्ठा रख दिया जाए तो भी यह उनसे दुगना प्राचीन लगता है।" बिना कुछ ज़्यादा कहे इन शब्दों ने सब कुछ बयान कर दिया और इस मिथकीय, प्राचीन और पावन स्थल को देखने-जानने की इच्छा मेरे रोम-रोम में भर गई।
और इसलिए साल के आख़िरी महीने के आख़िरी हफ़्ते में हम लोग पवित्र नगरी वाराणसी की उत्सुकता भरी यात्रा पर निकल पड़े, जिसे हिन्दू शास्त्रों में काशी के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन उत्तर भारत में दिसम्बर का आख़िरी दौर लम्बे सफ़र के लिए कोई बहुत अच्छा वक़्त नहीं है। धुंध और कोहरे की घनी चादर शहरों और गांवों को ढक लेती है, और देखने में आने वाली दिक़्क़त के चलते ज़्यादातर ट्रेन और फ़्लाइट देरी से चलती हैं, कभी-कभी तो एक बार में कई-कई घण्टों की देरी से। बनारस की पौराणिकता और अनोखेपन को जानने के हमारे उत्साह में हम उत्तर भारत की सर्दी की इस कड़वी हक़ीक़त को भुला बैठे। और ख़ामियाज़े के तौर पर हमने अच्छे-ख़ासे बीस घण्टे या तो ट्रेन का इंतज़ार करते हुए गुज़ारे या फिर सफ़र शुरू होने पर अपने कम्पार्टमेंट में ऊबते हुए। लेकिन इन सबके बावजूद दिलचस्पी और उत्साह का बढ़ना जारी रहा।
हम आख़िरकार अगले दिन रात को बनारस पहुँच ही गए, हालाँकि टाइम-टेबल के मुताबिक़ हमें उसी दिन सुबह वहाँ पहुँचना था ! शरीर थका हुआ था लेकिन आश्चर्यजनक रूप से दिमाग़ तरोताज़ा और फुर्तीला था। पता नहीं इसकी वजह पवित्र गंगा की ओर से आ रहे ठण्डे और पावन झोंके थे या फिर भगवान शिव की इस प्राचीन नगरी की शांतिपूर्ण शक्ति हमपर अपना असर दिखा रही थी? ज़ाहिर तौर पर दुनिया का सबसे पुराना शहर होने के लिए शारीरिक, भौतिक और आध्यात्मिक तौर पर ख़ास और असाधारण शक्ति चाहिए।
बनारस में क़दम रखते ही पहली चीज़ जिसने हमारा ध्यान अपनी तरफ़ खींचा, वह थी वहाँ के अनोखे रेलवे स्टेशन की रूपरेखा। इमारत की एक मन्दिर की तरह बनावट किसी रेलवे स्टेशन के लिए शायद बहुत ही रचनात्मक डिज़ाइन है, जो मैंने आजतक देखी है। हवा में एक तीखापन और ठण्ड थी और मैं अपनी जैकेट की गर्मी में कुछ और सिमट गयी। हमने एक ऑटोरिक्शा किया और फिर निकल पड़े एक बढ़िया होटल की खोज के लिए, जो शहर के गली-कूंचों में तक़रीबन दो घण्टे तक चलती रही। नौ बजे हुए काफ़ी वक़्त बीत चुका था और अंधेरे के साथ गहराता कोहरा खोज को ज़्यादा मुश्किल बना रहा था। आख़िरकार काशी विश्वनाथ पर ब्रह्ममुहूर्त की मंगल आरती के शुरू होने से महज़ तीन घण्टे पहले हम अपने लिए जगह ढूंढने में क़ामयाब रहे। हमारे पास तैयार होने के लिए सिर्फ़ 2 घण्टे थे और झपकी लेने के लिए तो बिल्कुल ही समय नहीं था।
कपड़ों की कई तहों से ख़ुद को लपेटने के बाद हम सुबह क़रीब दो बजे साइकिल रिक्शे से मंदिर की तरफ़ चल दिए। शहर की खाली और कुहरे से भरी गलियों में यह छोटा, लेकिन शांत और सोच से भरा सफ़र था। मंदिर शहर के बीचों-बीच पवित्र गंगा के पश्चिमी तट पर स्थित है। इलाक़ा पुराना और तंग है और सभी पवित्र जगहों की तरह, यहाँ भी अन्दर किसी भी गाड़ी का जाना मना है। इसके अलावा जो गलियाँ मंदिर की तरफ़ जाती हैं, वे इतनी सँकरी हैं कि वहाँ किसी भी गाड़ी का तेज़ी से चलना मुमकिन नहीं है। इतने तड़के भी मंदिर के द्वार से बाहर के रास्ते तक भारी सुरक्षा-व्यवस्था थी। हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मी मन्दिर की ओर जाने वाली सभी अहम जगहों पर मुस्तैदी से तैनात थे। हमें बताया गया कि मार्च 2006 में संकटमोचन मंदिर पर हुए आतंकवादी हमले के बाद काशी विश्वनाथ की सुरक्षा को और भी ज़्यादा चाक-चौबंद कर दिया गया है।
सभी सुरक्षा से जुड़ी जाँच-पड़तालों के बाद हम काशी विश्वनाथ के छोटे-से गर्भगृह में घुसे, जहाँ भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग विराजमान है। कहा जाता है कि काशी विश्वनाथ का दर्शन करने मात्र से देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित सभी 12 ज्योतिर्लिगों के दर्शन का फल मिल जाता है, और इसीलिए रोज़ाना दुनिया भर से हज़ारों-हज़ार श्रद्धालु आध्यात्मिक शांति और दैवीय अनुकम्पा पाने के लिए यहाँ आते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह शिव-मन्दिर हज़ारों साल से यहाँ पर है। लेकिन बाहरी हमलों के चलते यह कई बार टूटा और इसका जीर्णोद्धार होता रहा। माना जाता है कि इसके वर्तमान स्वरूप को इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने 1780 में बनवाया था। मन्दिर में मण्डप और गर्भगृह है और गर्भगृह के केन्द्र में एक चौकोर चांदी के चबूतरे पर लिंग स्थित है। यह लिंग काले पत्थर का है।
अन्दर पहुँचने पर हम दूसरे श्रद्धालुओं के साथ गर्भगृह के चार प्रवेश-द्वारों में से एक के पास खड़े हो गए। पवित्र मंत्रोच्चार के बीच पूजा करते हुए पुरोहितों का एक दल भगवान विश्वनाथ का शृंगार करने लगा। लिंग का अभिषेक पानी, दूध, घी, शहद से किया गया और फिर ताज़ी फूल-मालाओं से सजाया गया। चांदी के चबूतरे पर चारों ओर नए कपड़े रखे गए। इन प्रार्थनाओं और मंत्रोच्चार में एक जादू था। और जैसे ही मैंने ऊपर की ओर आँखें कीं, मैंने अपनी ज़िन्दगी का सबसे बेहतरीन नज़ारा देखा... सुबह के कोहरे की बीच मंदिर के स्वर्णिम महराब राजसी तरीक़े से चमकते हुए रोशनी फैला रहे हैं और एक पुराने पेड़ की डालें, जिनपर पत्तियाँ नहीं हैं, उन्हें हौले-से सहला रही है।
जैसे ही शृंगार का अनुष्ठान ख़त्म हुआ, हम सभी जो गर्भगृह के बाहर से इसे देख रहे थे, पास से दर्शन करने और चढ़ावा चढ़ाने के लिए एक-एक करके अन्दर बुलाए गए। पौ फटते है तानपुरे की संजीदा और मधुर ध्वनि के साथ एमएस सुब्बुलक्ष्मी की आवाज़ में "काशी विश्वनाथ सुप्रभातम्" ने एक और आध्यात्मिक सुबह की घोषणा की और मंदिर परिसर उससे गूंजने लगा। बनारस में यह एक और आम दिन की शुरुआत थी, लेकिन मेरे जागृत दिमाग़ और आत्मा के लिए यह ज़िन्दगी का सबसे अहम पल था।
Posted by Sheetal Rajput at 11:39 AM 13 comments
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Wednesday, January 7, 2009
आध्यात्मिक यात्रा - १
मैंने पिछले कुछ हफ़्तों में पाँच यात्राएँ कीं... बहुत ही भागदौड़ भरा वक़्त रहा। हाँ, पिछले महीने में मेरा ज़्यादातर समय सफ़र करते हुए ही गुज़रा, कभी काम के लिए और कभी निजी कारणों से। इसकी शुरुरात दिसम्बर के पहले हफ़्ते में अमृतसर की यात्रा के साथ हुई, हालाँकि अमृतसर जाने की मेरी कोई योजना नहीं थी। कुरुक्षेत्र की एक तेज़ ट्रिप तय थी। लेकिन वहाँ हमारा काम जल्दी ही ख़त्म हो गया, और जैसा कि होनी को मंज़ूर था, हमें मील का पत्थर नज़र आया जिसपर लिखा था – “अमृतसर 380 किमी”। मैंने अपने अन्दर कुछ महसूस किया, जिसे मैं अब ‘दरबार साहब’ (स्वर्ण मंदिर) का खिंचाव कहती हूँ। और हमने तुरंत पवित्र नगरी अमृतसर जाने का फ़ैसला किया।
यह लंबी, लेकिन सुखद यात्रा थी और हम शाम से पहले इस प्राचीन नगरी में पहुँच चुके थे। हम दरबार साहब के पास एक होटल में ठहरे और अगले रोज़ सुबह पवित्र मंदिर के दर्शन का फ़ैसला किया। रात को अमृतसर की गली-कूँचों का सफ़र हमें इतिहास के उस दौर में ले गया, जब इस शहर ने विभाजन का ख़ून-ख़राबा और हिंसा नहीं देखी थी। ऐसा लग रहा था कि सब कुछ वैसे-का-वैसा ही है, लेकिन फिर भी सब कुछ बदल चुका है। साफ़ तौर पर एक तरह की शांति और सन्नाटे ने शहर को घेर रखा था। हालाँकि बीच-बीच में कभी-कभार कोई मॉल या मैकडोनाल्ड्स दिख रहा था, लेकिन ऐसा लग रहा था कि शहर अपनी थाती और पुराने आकर्षण को बचाने में क़ामयाब रहा है।
सामूहिक कार्य या ‘सेवा’ सिख धर्म के केन्द्र में है और इसीलिए अगली सुबह जब हम दरबार साहब के द्वार से गुज़रे तो हमने सिख महिला-पुरुषों को, जिनमें युवा और बुज़ुर्ग दोनों शामिल थे, संगमरमर के रास्ते को दूध और पानी से धोते हुए देखा। भव्यता और वैभव के तेज से घिरा हुआ स्वर्ण मंदिर पवित्र कुंड के चमकते हुए पानी के बीचों-बीच नज़र आ रहा था। इस पवित्र जगह का पूरा वातावरण ग्रंथियों द्वारा किए जा रहे गुरु ग्रंथ साहब के पाठ के स्वरों से गूंज रहा था।
ऐसी मान्यता है कि अपनी देह त्यागने से पहले दसवें सिख गुरू, गुरू गोविन्द सिंह ने अपने अनुयायियों से कहा था कि उनके बाद कोई भी जीवित गुरू नहीं होगा और उन्हें गुरू ग्रन्थ साहब (पवित्र सिख धार्मिक पुस्तक) का अनुसरण करना चाहिए। इसके बाद यह पुस्तक न सिर्फ़ सिखों का धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि दसों गुरुओं का जीवित स्वरूप भी माना जाता है। गुरू ग्रंथ साहब में क़रीबन एक हज़ार से भी ज़्यादा पृष्ठ हैं, जिनमें धार्मिक शिक्षा, अच्छे जीवन के लिए पथप्रदर्शन और छन्द हैं। इन छन्दों और शिक्षाओं को ‘गुरुबाणी’ या ‘गुरुओं के शब्द’ भी कहा जाता है। सिखों के लिए ग्रंथ साहिब एक जीवित संत की तरह है और इसलिए हर सुबह इसे गद्दी पर बैठाया जाता है और रात में बिस्तर पर रखा जाता है।
हमने सुबह समारोह को श्रद्धा के साथ देखा, सिर झुके हुए थे और आँखे प्रार्थना में आधी बंद थीं। सूर्योदय में अभी भी कुछ वक़्त था और हम ख़ूबसूरती से जगमगा रहे पवित्र कुण्ड के शांत जल के नज़दीक बैठे हुए थे। तब मैंने विश्वास और धर्म की उस असाधारण ताक़त को महसूस किया, जो मनुष्य की आत्मा को तरोताज़ा और शांत करती है। हालाँकि दरबार साहब सिख धर्म-स्थल है, लेकिन भारत की हर जाति-मज़हब-पंथ के लोग यहाँ आते हैं और यहीं मैंने कुछ युवा बौद्ध भिक्षुओं के तस्वीर खिंचाने का आनन्दित करने वाला नज़ारा भी देखा। उनके ख़ुशी और उत्साह से भरे चेहरों में मैंनें सभी धार्मिक मतभेद के मुद्दों को ग़ायब होते हुए देखा, और इसलिए मुझे लगता है कि भले ही यह दिक़्क़त से भरा हो, लेकिन यही हमारे देश की सबसे बड़ी ताक़त भी है।
बाद में हम एक अलग तरह की तीर्थयात्रा पर निकले। दरबार साहब से कुछ ही दूरी पर जलियाँवाला बाग़ है। सुबह की भीड़-भाड़ वाली गलियों में हमने छोटी दूरी को साइकिल रिक्शा के ज़रिए तय किया। रिक्शे वाला एक बुज़ुर्ग सिख था, जिसकी लम्बी-सी सफ़ेद दाढ़ी थी। उन्होंने हमें बताया कि उनके एक चाचा भी उस क्रूर हत्याकाण्ड में शहीद हो गए थे और आज भी उनका पूरा ख़ानदान एक नायक की तरह उनको याद करता है।
इस ऐतिहासिक स्थल के बाहर ही यह बोर्ड लगा है – ‘यह भूमि लगभग दो हज़ार देशभक्त पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के ख़ून से पवित्र हुई है।’ मेरी धड़कन एक पल के लिए थम-सी गयी और मैंने गहरी साँस ली। आँखें बंद करके मैंने तक़रीबन अस्सी-नब्बे साल पहले के उन हिंसा से भरे आतंकित करने वाले लम्हों को याद करने की कोशिश की, जब ब्रिटिश फ़ौजी कमांडर जनरल डायर ने अपने सैनिकों को बिना समझे-बूझे बेगुनाह और मासूम औरतों, मर्दों और बच्चों पर गोली चलाने का आदेश दिया था। उनकी ग़लती महज़ इतनी ही थी कि वे वहाँ शांतिपूर्ण ढंग से आज़ादी की मांग के लिए सभा कर रहे थे। रिकॉर्ड्स के मुताबिक़ गोलीबारी क़रीब दस मिनट तक चली और इस छोटे-से दौर में लगभग सोलहसौ राउण्ड गोलियाँ दाग़ी गईं। अभी भी दीवारों पर उन गोलियों के निशानों को आसानी से देखा जा सकता है, जिनके चारों ओर ध्यान-से गोला बनाया गया है। बाग़ का एकमात्र दरवाज़ा बंद कर दिया गया था और जो बेचारे अन्दर बन्द थे उनके निकलने का कोई रास्ता नहीं था। हमने वो कुँआ भी देखा जिसमें गोलियों से बचने के लिए कई लोग कूदे और अंतहीन गहराही में समा गए। और जब मैंने उस कूँए में भीतर झांक कर देखा, तो मदद के लिए पुकारती आवाज़ों की गूंज को महसूस किया। वे सभी हमारी आज़ादी की लड़ाई के बिसरे हुए नायक थे और उनकी शहादत के स्थल पर जाना किसी तीर्थयात्रा करने की ही तरह महसूस हुआ।
पुनश्च – मेरी तरफ़ से अपने सभी साथी चिट्ठाकारों और पाठकों को नए साल की बहुत-बहुत बधाई।
Posted by Sheetal Rajput at 3:29 PM 11 comments
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Wednesday, November 12, 2008
हाऊ की याद!
नवम्बर आ चुका है और साथ में सर्द सुबह और ठण्डी शाम ले आया है। ऊनी कपड़े अभी तक पूरी तरह बाहर नहीं आए हैं, लेकिन एक पतली शॉल अब ज़रूरी हो गई है। सबेरे बिस्तर की आरामदेह गर्माहट को छोड़कर उठना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। सुबह की चाय की पहली प्याली का असर जल्दी ही ख़त्म हो जाता है और मुझे जल्दी ही एक और प्याली चाय लेनी पड़ती है! मैं अपनी शॉल की गर्माहट में दुबकी हुई बैठती हूँ, उंगलियाँ कम को मज़बूती से पकड़े होती हैं और जब मैं अपनी बालकनी से बाहर झांकती हूँ, तो मन दशकों पहले की उन सर्द सुबहों में चला जाता है जब मैं जम्मू में स्कूल की छात्रा थी।
अचानक मेरी यादों के फ़्लैशबैक में हाऊ ज़िन्दा हो उठती है। हाऊ पतली-दुबली, छोटी-सी, क़रीब पचास साल की महिला थी। वह हमारे घर में साफ़-सफ़ाई वगैरह का काम किया करती थी। बरसों की कड़ी मेहनत ने उसके चेहरे को झुर्रियों से भर दिया था, हालाँकि उसके बाल तब भी बिल्कुल काले थे, एक भी सफ़ेद तिनके की झलक उनमें नहीं थी। मूलतः वह जम्मू से मीलों दूर बिलासपुर की रहने वाली थी। सालों पहले उसके पति ने उसे और उसके तीन बच्चों को किसी दूसरी औरत के लिए छोड़ दिया था। बिखर चुकी और लोगों के सवालों का सामना करने के लिए अकेली पड़ चुकी हाऊ ने शर्म और ग़रीबी से तंग आकर एक दिन अपने गांव को छोड़ दिया और बेहतरी की तलाश में जम्मू आ गयी, जहाँ उसके गांव के कई लोग छोटे-मोटे काम किया करते थे।
हमारा घर उन कई घरों में से एक था, जहाँ हाऊ काम किया करती थी। काम ख़त्म करके सुबह की चाय हमारे साथ लेना तक़रीबन रोज़ाना का काम था। और बहुत-सी ठण्डी सुबहों को वह अपने देस (गांव) के क़िस्से बड़ी अजीब-सी बोली में हमें सुनाया करती थी, जो मुझे ज़्यादा-कुछ समझ में नहीं आते थे। न ही वह मेरी भाषा ज़्यादा समझ पाती थी, लेकिन फिर भी अजीब बात यह है कि सब कुछ आसानी से कम्यूनिकेट हो जाता था। वह हर बात जो मैं कहती थी, उसपर वह अपना सर हिलाती थी और मुस्कुराते हुए कहती “हाऊ” (हाँ!)। इसलिए हम उसे हाऊ कहकर पुकारते थे! उसका असली नाम फूलबाई था।
हाऊ मुझे अपने गांव से बहने वाली नदी “महानन्दी” (महानदी) की कहानियाँ सुनाया करती थी और बरसात के दिनों की ख़तरनाक नदी के डरावने क़िस्से उनमें शामिल होते थे। उसने मुझे अपने पति और उसके परिवार की कहानियाँ भी सुनाईं। उसके ग़रीब माँ-बाप ने उसकी शादी तब ही कर दी, जब वह एक छोटी-सी बच्ची थी। जैसे ही वह अपनी शादी-शुदा ज़िन्दगी के सुखद शुरुआती दिनों की यादों में डूबती थी, उसकी आँखें चमक उठती थीं और उसकी मुस्कान सौ मील चौड़ी हो जाती थी। हाऊ का पति उससे उम्र में काफ़ी बड़ा था फिर भी उसने अपने पति की पूरे जी-जान से सेवा की, जबतक कि उसने हाऊ को उमर में और भी छोटी लड़की के लिए छोड़ नहीं दिया। उसकी आँखों की चमक को अब दुःख की छाया ढक लेती थी और वह अपने पति को कोसने लगती थी, वह अपने आँसुओं को भी शायद ही रोक पाती थी।
हाऊ हमेशा एक पतली-सी साड़ी पहनती थी जो वह कमर से कुछ इंच ऊपर बांधती थी और वह साड़ी सर्द-से-सर्द मौसम में भी शॉल की तरह उसके कंधों से लिपटी रहती थी। वह मोज़े नहीं पहनती थी, या कहें तो नए मोज़ों का ख़र्चा नहीं उठा सकती थी। मैंने के बार अपनी के पुरानी जोड़ी उसे दी भी, लेकिन उसने उसे कभी पहना नहीं। हमेशा के लिए दुःख सहने वाली त्यागी हिन्दुस्तानी औरत की तरह उसने उसे अपने सबसे छोटे लड़के को दे दिया। वह चाहती थी कि जब वो बड़ा हो तो पढ़-लिख कर बाबू बने। उसने उसे उन परेशानियों और मेहनत से दूर रखा, जिसका सामना उसे और उसके दो बड़े बेटों को हर पल करना पड़ता था। उसे अपने छोटे बेटे से बहुत आशाएँ थीं, लेकिन तब उसका दिल बुरी तरह टूट गया जब उसे पता लगा कि उसका “बिटवा” बुरी संगत में फँस गया है और बहुत ज़्यादा सिगरेट भी पीने लगा है।
मैंने आख़िरी बार उसे तब देखा था जब मैं घर गयी थी। वह और भी बूढ़ी हो चुकी थी और उसके बालों में कुछ चाँदी की लक़ीरें भी झलकने लगीं थीं, लेकिन उसकी मुस्कुराहट उतनी ही प्यारी और सब कुछ भुला देने वाली थी। “बिटवा” पूरी तरह बड़ा हो चुका था और हाँ, वो बाबू नहीं बन पाया था।
हाल में मैं चुनाव-पूर्व सर्वे के लिए छत्तीसगढ़ गयी थी और हमारा जहाज़ इस नवोदित राज्य के जंगलों और गांवों के ऊपर से गुज़र रहा था तो मैं हाऊ और महानदी की दहशत के बारे में सोच रही थी।
Posted by Sheetal Rajput at 10:19 AM 19 comments
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Friday, September 26, 2008
सालगिरह मुबारक हो देव साहब
देव साहब के लिए मेरा लगाव बचपन से ही रहा है और मेरे परिवार में भी सब उनके चाहने वाले हैं। परिवार की सभी महिलाएँ, जिसमें मेरी माँ और मेरी स्व. नानी शामिल हैं, देव आनन्द की पक्की फ़ैन रहीं हैं। हम सभी इस सदाबहार और चिरयुवा नायक के साथ मुस्कुराए हैं, हँसे हैं, गुनगुनाए हैं, सुबके हैं और रोए भी हैं। हमें उनकी अल्हड़, अनौपचारिक और आधुनिक स्टाइल बेहद भाती थी। वे हमेशा बहुत स्वाभाविक लगे हैं, चाहे वे जिस किसी किरदार में भी क्यों न हों। 60 के दशक की क्लासिक फ़िल्म “हम दोनों” में उनका सेना के अफ़सर का किरदार, उनके घरेलू प्रोडक्शन “तेरे घर के सामने” में दिल्ली के आकर्षक आर्किटेक्ट का किरदार और 70 की ब्लॉकबस्टर “हरे रामा हरे कृष्णा” में उनका हिप्पी ऐक्ट मेरे पसंदीदा हैं। वे हमेशा बेहद ख़ूबसूरत लगे हैं, लेकिन साथ ही बहुत असल और विश्वसनीय भी। मेरे ख़्याल से उनकी अपील की वजह उनका अल्हड़ और आधुनिक स्टाइल है। देव साहब ने कभी भी ज़रूरत से ज़्यादा नाटकीयता का सहारा नहीं लिया, इस कारण उनका आकर्षण और अपील हर उम्र के लोगों को भाते हैं।
साथ ही उनकी ऊर्जा और ज़िन्दगी के लिए उनका उत्साह, ख़ासतौर पर फ़िल्म-निर्माण की कला के लिए, बेहद संक्रामक और प्रेरक हैं। आज भी वे बिना रुके लगातार फ़िल्म बनाते रहते हैं, पचासी साल की उम्र में भी एक नया प्रोजेक्ट उन्हें उतना ही उत्साहित करता है जितना उन्हें 1940 के दौर में करता था जब वे इस क्षेत्र में बिल्कुल नए थे। देव आनन्द पुरानी उपलब्धियों का सहारा लेना पसंद नहीं करते हैं। वे कभी मुड़कर पीछे नहीं देखते हैं। उनके अपने अल्फ़ाज़ में, “लगातार सीखने और चलते रहने की ज़रूरत, दरअसल ज़िन्दा रहने की ज़रूरत है।”
इसके अलावा वे बेहद रुमानी इंसान भी हैं। इस रुमानी सितारे का एक और उद्धरण, “मुझे लगता है कि ज़िन्दगी रुमानी होनी चाहिए, ज़रूरी नहीं कि ऐसा प्यार या अफ़ेयर के नज़रिए से ही हो लेकिन अगर आप एक ख़ूबसूरत पंक्ति पढ़ या लिख रहे हैं, तो यह रुमानी है, अगर आप एक सुन्दर टाई पहन रहे हैं, यह रुमानी है, आपका बोलना रुमानी है।”
कितने ख़ूबसूरत शब्द हैं। मैंने कई बार इन शब्दों को जिया है और इनसे प्रेरणा ली है। मैं आपको एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाती हूँ। पाँच साल पहले, सन् 2003 में, मैं अपनी साथी एंकर के साथ सुबह का कार्यक्रम कर रही थी। इस कार्यक्रम में एक स्टोरी देव आनन्द के बारे में थी कि उन्हें किसी पुरस्कार से नवाज़ा गया है। इस स्टोरी को देखकर मैं अपनी साथी एंकर से बोली, कितने दुःख की बात है कि बॉलीवुड के महानतम सितारों में से एक और एक लिविंग लीजेंड होने के बावजूद देव साहब को अब तक भारतीय फ़िल्म जगत का सबसे बड़ा सम्मान – दादा साहब फाल्के पुरस्कार – नहीं मिला है। यह कहते वक़्त मेरी आवाज़ में आवेश और ग़ुस्से की गूंज थी कि क्या इस पुरस्कार से जुड़े अधिकारी इस तथ्य के प्रति अन्धे हो गए हैं कि लिविंग लीजेंड देव साहब इस सम्मान के सबसे बड़े हक़दार हैं। बाद में उस रात जब मैं सोने की तैयारी कर रही थी, मेरी एंकर मित्र ने फ़ोन किया और उसके बाद उन्होंने जो कहा उसपर यक़ीन करना ज़रा मुश्किल था।
“शीतल, क्या तुमने टीवी पर ख़बर सुनी?”
“कौन-सी ख़बर?”
“अरे भई, अभी-अभी ख़बर आयी है कि देव आनन्द को इस साल के दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। तुम्हारी शिकायत दूर कर दी गयी है”, उसने मज़ाक किया।
मैं आश्चर्यचकित थी। मैंने टीवी खोला और पाया कि ख़बर वाक़ई सच थी!
आने वाले दिनों में और भी कुछ होने वाला था। वो शहर में पुरस्कार लेने के लिए आए थे, मुझे अपने बचपन और वयस्क जीवन के ‘क्रश’ का इंटरव्यू लेने का मौक़ा मिल गया। मैंने राजधानी के एक चमचमाते होटल में उनका इंटरव्यू किया। शूट करने से पहले में काफ़ी नर्वस थी, लेकिन जैसे ही देव साहब लॉबी में आए उन्होंने मुझे पूरी तरह सहज कर दिया।
“हैलो, शीतल। तुमने जो रंग पहना है, वह बहुत प्यारा और ख़ूबसूरत है,” उन्होंने अपने ख़ास अन्दाज़ में एक बड़ी-सी मुस्कान के साथ दोस्ताना लहज़े में हाथ मिलाते हुए कहा।
शताब्दी के महानतम सितारे की तरफ़ से आए इस शुरुआती वाक्य ने मुझे पूरी तरह सहज कर दिया और मैं खुल गयी। इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बहुतेरी बातें कहीं, उनमें जो बात मुझे अच्छी तरह याद है और जिसपर उन्होंने सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया, वह यह थी कि इंसान का एक ख़ास अन्दाज़ होना चाहिए।
“मैं ऐसी चीज़ें पहनना पसन्द करता हूँ जो किसी ने न पहने हों। जो भी मेरे शरीर पर है, यह घड़ी, या फिर यह मफ़लर, या यह ढीली पतलून ही लीजिए जो मेरी व्यक्तिगत पसंद और चुनाव को ज़ाहिर करती है। जिस तरह मैं चलता हूँ, या बोलता हूँ, या प्रतिक्रिया देता हूँ, मेरा व्यक्तिगत और ऑरिजिनल स्टाइल है। मौलिक होना बहुत महत्वपूर्ण है। अपनी सहजता में रहना ही ऑरिजनल होना है। आप रोल मॉडल बन जाते हैं अगर आपकी स्टाइल में मौलिकता है तो।”
तो यह है उनका मंत्र उनके ही मुंह से।
अब मैं अपनी बात देव आनन्द की फ़िल्म “हम दोनों” के उस मशहूर गाने के साथ ख़त्म करती हूँ, जो उनकी शख़्सियत को बयान करता है और कईयों के लिए प्रेरणास्रोत रहा है –
“मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया,
हर फ़िक़्र को धूएँ में उड़ाता चला गया।”
नोट – साइट के लिंक के लिए सागर जी को और कब्बन मिर्ज़ा की तस्वीरों के लिए युनूस जी को धन्यवाद।
Posted by Sheetal Rajput at 9:57 AM 17 comments
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