मैं मेकअप-रूम में बैठी हुई थी और अपने कार्यक्रम के लिए तैयार हो रही थी। मेरी आँखें बन्द थीं और मैं हिन्दी फ़िल्म रज़िया सुल्तान के सपनीले गाने की ख़ूबसूरत धुन में डूबने की कोशिश कर रही थी – आई ज़ंजीर की झंकार ख़ुदा ख़ैर करे, दिल हुआ किसका गिरफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे। यह गाना हमारे हेयरस्टाइलिस्ट की मेहरबानी से बज रहा था, जिसके सेल फ़ोन पर गानों का बेहतरीन संग्रह है और हमेशा किसी-न-किसी गीत से हमारा मनोरंजन करता रहता है। कब्बन मिर्ज़ा की अप्रतिम आवाज़, जाँनिसार अख़्तर के शानदार अल्फ़ाज़ और ख़ैयाम का बेहतरीन संगीत कमरे में जादू-सा माहौल पैदा कर रहे थे और हम सभी साथ-साथ गुनगुना रहे थे। वह पल सुकून और आनन्द से भरा हुआ था।
हालाँकि वह समाधि-सी अवस्था पिया की आवाज़ से जल्दी ही ख़त्म हो गयी - शीतल, तुम्हारे साथ क्या दिक़्क़त है? तुम क्या कचरा सुन रही हो? और कितनी अजीब आवाज़ है! पता नहीं यह बारहवीं शताब्दी का गाना है या क्या? मैं अचंभे और सदमे में थी। कोई कैसे ख़ैयाम के मशहूर संगीत से अनजान हो सकता है और सबसे अहम बात तो यह कि कोई संगीत के इस मास्टरपीस के प्रति इतना असम्वेदनशील कैसे हो सकता है? लेकिन पिया को वाक़ई इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि जब ख़ैयाम ने अपना यह मशहूर गीत बनाया होगा उस वक़्त मेरी यह ऊर्जस्वी और युवा सहकर्मी पालने में झूल रही होगी। “पिया, यह भारतीय फ़िल्म जगत के एक नामी संगीतकार की बहुत मशहूर रचना है। अपनी माँ से पूछना, मुझे यक़ीन है कि उन्होंने यह गाना ज़रूर सुना होगा”, मैंने उससे समझाने की कोशिश करते हुए कहा।
क’मॉन, गिव मी अ ब्रेक। मेरी माँ इस तरह का बहनजी स्टफ़ नहीं सुनती है। उसकी पसन्द बहुत ‘हिप’ और नयी है।
हिप, किसमें? रॉक, पॉप, हिप हॉप वगैरह?
बिल्कुल, वो बीटल्स, बोनी-एम और 70’s और 80’s के बैण्ड्स सुनती है।
और मैं भी सुनती हूँ। लेकिन मैं अपने ख़ैयाम, मेहदी हसन और सी. रामचन्द्रन से भी प्यार करती हूँ।
अब ये लोग कौन हैं?
हमारी बातचीत यहाँ ख़त्म हो गयी, क्योंकि मुझे अपने कार्यक्रम के लिए जाना था। लेकिन इस वाक़ये ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। दरअसल यह मेरे लिए काफ़ी दुःखद था कि कोई संगीत में इतना भेद-भाव कर सकता है, एक ऐसी भाषा जो बेहद पवित्र और सार्वभौमिक है। कम-से-कम मैं तो ऐसा सोचते हुए ही बड़ी हुई हूँ। मैं संगीत से प्रेरित, उत्साहित, चकित, आन्दोलित हुई हूँ और संगीत ने मुझे भीतर तक छुआ है। यह कुछ ऐसा है जो मेरे ऊर्जा-स्तर को तुरंत बढ़ा देता है। मेरा संगीत-प्रेम उस दौर का है, जब मैं छोटी-सी बच्ची हुआ करती थी। मेरे माता-पिता बताते हैं कि तब मैं 70 के दशक के मशहूर गाने गुनगुनाने की कोशिश किया करती थी... कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है – अपनी तोतली ज़ुबान में। हम संगीत के उस बेहतरीन संग्रह को सुनते हुए बड़े हुए हैं जो मेरे माता-पिता के पास था; जिसमें जगजीत-चित्रा की ग़ज़ल से लेकर 60 और 70 के बीटल्स और कार्पेण्टर्स जैसे अंग्रेज़ी बैंड और 50 के दशक का गीता दत्त व हेमंत कुमार का मधुर संगीत भी शामिल है।
हमने संगीत की विभिन्न विधाओं में कभी भेदभाव नहीं किया। बीटल्स के सितार और गिटार के फ़्यूज़न ‘नॉरवीजन वुड्स’ ने मुझे उतना ही आन्दोलित किया है जितना कि तलत महमूद के मधुर और धीमे गीत ‘मैं दिल हूँ इक अरमान भरा, तू आके मुझे पहचान ज़रा’ ने। प्रसिद्ध अमरीकी रॉकर नील डाइमंड के ‘कंटकी वूमन’, ‘ब्रुकलिन रोड्स’ और ‘प्ले मी’ ने मेरी आत्मा को उतना ही छुआ है, जितना कि शहंशाह-ए-ग़ज़ल मेहदी हसन के ‘आए कुछ अब्र कुछ शराब आए’ और ‘दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं’ ने। ज़िन्दादिल मुहम्मद रफ़ी के गीत ‘मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया’ ने मुझे उतना ही प्रेरित किया है, जितना उन्मुक्त फ़्रेंक सिनाट्रा की मेलोडी ‘माई वे’ ने। उस दौर में बीटल्स, ईगल्स, कार्पेण्टर्स, जिम रीव्स, फ़्रेंक सिनाट्रा, एबीबीए और मार्क एंथनी ज़िन्दगी का उतना ही हिस्सा थे जितने लता मंगेशकर, तलत महमूद, मुहम्मद रफ़ी, भूपेन्द्र, नुसरत फ़तेह अली ख़ान, मेहदी हसन और चित्रा (विख्यात दक्षिण भारतीय गायिका)।
मेरा दिन संगीत से ही शुरू और ख़त्म हुआ करता था। और अभी भी ऐसा ही है। केवल मेरी पसंद की सूची और लम्बी हो गयी है। अब इसमें नटालिया इम्ब्रुगलिया, सेलिना डिओन, जॉन मेयर, जेम्स ब्लण्ट, श्रेया घोषाल, मोहित चौहान, सोना महापात्रा, रबी शेरगिल, शफ़क़त अमानत अली, शांतनु मोहित्रा और शंकर-एहसान-लॉय की तिकड़ी भी शामिल हो चुकी है। मुझे कभी-कभी लगता है कि संगीत की तरफ मेरा झुकाव कुछ ज़्यादा ही है। हालाँकि यह ज़रूरी नहीं है कि मुझे हर दूसरा गाना पसंद ही आए, लेकिन मेरे साथ कुछ ऐसा है कि मैं किसी भी गाने को बिल्कुल खारिज नहीं कर सकती हूँ। संगीत मुझे हर रूप-रंग और विधा में भाता है। और मैं जहाँ भी सफ़र करती हूँ, देश के भीतर या बाहर, मेरी ख़रीदारी के एक बड़े हिस्से में उस इलाक़े का संगीत शामिल होता है! मेरे लिए संगीत जीवन का सार है, प्रेरित करने के साथ ही सुकून देने वाली सबसे बड़ी ताक़त। यह पवित्र है, यह मस्ती-भरा है और साथ ही ध्यान की गहराइयों तक पहुँचाने में भी सक्षम है। और इसलिए मैं कार्पेण्टर के उस मशहूर गाने के साथ अपनी बात ख़त्म करती हूँ, जो मेरे सबसे पसंदीदा गीतों में से एक है - Sing, sing a song
Sing out loud, sing out strong
Sing of good things, not bad
Sing of happy, not sad
Sing, sing a song
Make it simple to last your whole life long
Don't worry that it's not good enough
For anyone else to hear
Just sing, sing a song
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Saturday, September 20, 2008
आओ, एक गीत गुनगुनाएँ
Posted by Sheetal Rajput at 10:59 AM
Labels:
कब्बन मिर्ज़ा,
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13 comments:
कब्बन मिर्जा अपने गले के कैंसर से बड़ी लाचारी की अवस्था में इस दुनिया से अलविदा हुए थे .....ये गाना मेरे मोबाइल में भी है ...ओर ऐसे लोगो को संगीत की समझ नही है जो इसे बेसुरा कहते है.....यही गीत अगर रीमिक्स होकर बीच में दो चार ...लाइने जोड़ कर आएगा तो ये लोग इसे अपने मोबाइल में डाउनलोड कर लेगे.....
saat svaron ke andar bahaney vaali baat koi bhii khaarij kaisey kar saktaa hai!!!
इलेक्ट्रानिक चैनल से जुड़ा कोई वयक्ति जब मेलोडी की बात करता है तो सचमुच बहुत अच्छा लगता है।
संगीत मुझे हर रूप-रंग और विधा में भाता है। और मैं जहाँ भी सफ़र करती हूँ, देश के भीतर या बाहर, मेरी ख़रीदारी के एक बड़े हिस्से में उस इलाक़े का संगीत शामिल होता है! मेरे लिए संगीत जीवन का सार है, प्रेरित करने के साथ ही सुकून देने वाली सबसे बड़ी ताक़त।
ताज्जुब हुआ जानकर। हर क्षेत्र में विशेषज्ञता।
शीतलजी
आपकी रुचियाँ जान कर बहुत खुशी हुई। बिल्कुल आपके जैसा मेरा हाल है। जब मैं आठ दस साल का रहा होऊंगा तब से के एल सहगल और हेमंत दा मुझे भाने लगे। मुकेशजी को तो भगवान समझने लगा था मैं।
धीरे धीरे हिन्दी के सभी गायकों को सुना। दीवानगी बहुत बढ़ती गई। आज भी यही हाल है कि दिन के २०-२५ गानें तो कम से कम मैं सुनता ही होऊंगा। कम से कम १० हजार गानों का संग्रह भी बना लिया।
फिर भी मन नहीं बरा तो ब्लॉग भी बनाया और दुर्लभ गीत लोगों को सुनाये। एक गीत आपके लिये प्रस्तुत है
गाना जो आप बार बार सुनना चाहेंगे।
बाद में विविध भारती के यूनुस खान और इन्दौर के संजय पटेलजी के साथ मिल कर हमने श्रोता बिरादरी भी बनाई जिस पर इन दिनों लता जी के ८० वें जन्म दिन के उपलक्ष्य में स्वर उत्सव चल रहा है और रोजाना एक संगीतकार का दुर्लभ गीत सुनाया जाता है।
आपका स्वागत है हमारी महफिल और श्रोता बिरादरी में।
पिया हमारे यहाँ भी होती है, कभी किसी पिया उसका इन मधुर गीतों से सरदर्द होने लगता है। कबी किसी पिया को ये गाने सुनकर नींद आने लगती है।
पिआओं से मैं अक्सर पूछता हूँ आपके जमाने में साजन फिल्म आई थी उसके गीत बहुत प्रसिद्ध हुए थे, हम आपके हैं कौन, जान तेरे नाम आदि आदि ... उनके गीत क्यों नहीं बजते आज और सत्तर साल पुराने गीत आज भी लोगों को क्यों भाते हैं?
तब पियाओं के पास कोई जवाब नहीं होता, होता है बस मुँह बिचकाना और पुराने गितों को कोसना।
संगीत ही जीवन है..कैसे कोई इससे बिना झंकृत हुए रह सकता है...समझ समझ का फेर है.
शीतल जी मुझे एक कार्यक्रम में विविध भारती में कब्बन मिर्जा का असिस्टेन्ट बनकर दो तीन दिन काम करने का मौक़ा मिला है । मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि अपनी इस प्रिय आवाज़ वाली शख्सियत के सामने आने का मौक़ा मिलेगा ।
कब्बन मिर्जा के बारे में विस्तार से लिखा है रेडियोवाणी पर । यहां देखिए । यहां कब्बन साहब की तस्वीरें भी हैं । बाक़ी तो हमारे मित्र सागर नाहर लिख ही चुके हैं ।
यूनुस खान
रजिया सुल्ताना का ये गाना हमें भी बहुत पसंद है।
your blog is the best seriously atleast you do not write things against indian...
keep it up ma'am
दिल्ली में हुए बम धमाको के बाद एक ऐसा नक्शा देश के सामने आया जो देश के नक्शे से भी बड़ा था । ये नक्शा है आजमगढ़ का । दिल्ली बम धमाको में जितने भी आतंकवादी का नाम सामने आया है उसमें आजमगढ़ का नाम सबसे बड़ा है । और यह भी खुलकर सामने आ रहा है कि दिल्ली बलास्ट में मुम्बई से गिरफ्तार पांच आतंकवादियो के तार २००५ से लेकर अबतक के धमाको से है । और इन धमाको के तार कही न कही आजमगढ़ से जुड़े रहे है । जो भी हो उत्तर प्रदेश के नक्शे पर आजमगढ़ काफी समृद्ध रहा है । कारण यह है कि यहां के लोग कुशल कारीगर रहे है । जिसकी झलक बनारसी साड़ियो में देखी जाती है । इसके अतिरिक्त यहां के लोगो के लिए समृध्दि की लहर अरब देश से भी आती रही है ।अरब देश में काम करनेवाले लगभग ४०० परिवार आजमगढ़ के रहे है । आजमगढ़ का महत्व विद्वान से लेकर मशहूर शायक तक रहे है । राहुल सास्कृतायन से लेकर मशहूर शायर कैफी आजमी तक का धर आजमगढ़ रहा है । लेकिन इस सब के बाबजूद आजमगढ़ की नयी फसल आतंक औऱ दहशत से तैयार हो रही है ।कारण जो भी हो लेकिन अभी जो स्थिति आजमगढ़ की है इसमें यही कहा जा सकता है कि इस आजमगढ़ में आतंकवाद की नई फसल तैयार हो रही है । दिल्ली बम धमाको में गिरफ्तार किये गये ये आतंकी इसके सबूत है ।
लेकिन सवाल यह है कि आजमगढ़ में आतंक की इस फसल का कारण क्या है ...इसके बीच यह भी हो सकता है कि इन नये चेहरो को आजमगढ़ में अबु सलेम का घर लुभा रहा है । कारण जो भी हो लेकिन आतंक के इस नये चेहरे ने आजमगढ़ की तस्वीर को बदल दिया है ।
शीतल, हालांकि आपसे मुलाक़ात तो रोज़ ही होती है पर लगा कि अपनी बात इसी मंच पर रखी जाए तो बेहतर है।
दरअसल इस सबमें ग़लती हम सबकी है क्योंकि घरों में हम अपनी ज़िम्मेदारी केवल बच्चों को पढ़ा लिखा कर तथाकथित क़ाबिल बना देना समझते हैं....उनके सामाजिक और बौद्धिक सरोकार क्या हैं इससे हमें शायद कोई खास फ़र्क नहीं पड़ता है...ऐसी तमाम पिया हैं हमारे दफ़्तरों, घरों और आसपास ही नहीं बल्कि दुनिया भर में....दरअसल दिक्कत यह है कि हम अपनी पसंद से स्नेह करने की जगह दूसरे की पसंद को नापसंद करने लगे है.....भारतीय संगीत को खासकर पुराने फ़िल्मी संगीत को सुनना पता नहीं क्यों लज्जाजनक समझा जाने लगा है....मैं भी दफ़्तर में इसीलिए बदनाम हूं पर मैं इसे प्रशंसा समझता हूं जब कोई कहता है कि ये क्या वाहियात चीज़ सुन रहे हो....और मैं गर्व से भर जाता हूं और बस इतना कहता हूं कि वही जो आपके और मेरे बाप दादा सुनते थे ....अच्छा मुद्दा उठाया
किसी भी गाने को खास आयु-वर्ग के श्रोताओं में बांधने की सोच अव्यवाहरिक है। एक दस साल के बच्चे को सन 50 का गाना पसंद हो सकता है । ऐसा खूब देखा भी गया है । शौर मचाते रीमिक्स तो बरसाती नाले हैं । विश्वास करना होगा अगर आज पचास साल पुराना गाना - ओ दुनिया के ऱखवाले . . 20 साल का नौजवान गुनगुनाता है तो आने वाले सौ साल बाद भी खैय्याम, नौशाद, तलत महमूद, मोहम्मद रफी, लता आशा जी को श्रद्धा से सुना जाता रहेगा । श्रद्धा शब्द इसलिए कि मधुर गीत-संगीत का जो दौर बीता है वह अब लौटकर नहीं आने वाला । इतनी उम्मीद भी नहीं है कि भविष्य में ऐेसे गीत और संगीत सृजित करने की किसी में कुव्वत बचेगी । शुक्र है गीत-संगीत का बेशुमार खजाना हमारे पास है जो सदियों तक हमारे स्टीरियो, मोबाइल या फिर आने वाली किसी नई तकनीक के माध्यम से हमें आनंदित करते रहेंगे।
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