Saturday, January 17, 2009

आध्यात्मिक यात्रा - २

यह उन कुछ बिरले विचारों में से एक था जो काफ़ी बेपरवाह और बेतरतीब तरीक़े से शुरू होते हैँ, और इससे पहले की आप गंभीरता से इनपर ग़ौर करें, ये आपके दिलोदिमाग़ पर पूरी तरह छा जाते हैं। मैं प्राचीन पवित्र वाराणसी (बनारस) नगरी का विवरण पढ़ रही थी, जब जाने-माने अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन की एक उक्ति ने मेरा ध्यान अपनी तरफ़ खींचा, "बनारस इतिहास से भी प्राचीन है, परम्परा से भी पुराना है, यहाँ तक कि मिथकों से भी पहले का है, अगर उन सभी को साथ में इकट्ठा रख दिया जाए तो भी यह उनसे दुगना प्राचीन लगता है।" बिना कुछ ज़्यादा कहे इन शब्दों ने सब कुछ बयान कर दिया और इस मिथकीय, प्राचीन और पावन स्थल को देखने-जानने की इच्छा मेरे रोम-रोम में भर गई।

और इसलिए साल के आख़िरी महीने के आख़िरी हफ़्ते में हम लोग पवित्र नगरी वाराणसी की उत्सुकता भरी यात्रा पर निकल पड़े, जिसे हिन्दू शास्त्रों में काशी के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन उत्तर भारत में दिसम्बर का आख़िरी दौर लम्बे सफ़र के लिए कोई बहुत अच्छा वक़्त नहीं है। धुंध और कोहरे की घनी चादर शहरों और गांवों को ढक लेती है, और देखने में आने वाली दिक़्क़त के चलते ज़्यादातर ट्रेन और फ़्लाइट देरी से चलती हैं, कभी-कभी तो एक बार में कई-कई घण्टों की देरी से। बनारस की पौराणिकता और अनोखेपन को जानने के हमारे उत्साह में हम उत्तर भारत की सर्दी की इस कड़वी हक़ीक़त को भुला बैठे। और ख़ामियाज़े के तौर पर हमने अच्छे-ख़ासे बीस घण्टे या तो ट्रेन का इंतज़ार करते हुए गुज़ारे या फिर सफ़र शुरू होने पर अपने कम्पार्टमेंट में ऊबते हुए। लेकिन इन सबके बावजूद दिलचस्पी और उत्साह का बढ़ना जारी रहा।

हम आख़िरकार अगले दिन रात को बनारस पहुँच ही गए, हालाँकि टाइम-टेबल के मुताबिक़ हमें उसी दिन सुबह वहाँ पहुँचना था ! शरीर थका हुआ था लेकिन आश्चर्यजनक रूप से दिमाग़ तरोताज़ा और फुर्तीला था। पता नहीं इसकी वजह पवित्र गंगा की ओर से आ रहे ठण्डे और पावन झोंके थे या फिर भगवान शिव की इस प्राचीन नगरी की शांतिपूर्ण शक्ति हमपर अपना असर दिखा रही थी? ज़ाहिर तौर पर दुनिया का सबसे पुराना शहर होने के लिए शारीरिक, भौतिक और आध्यात्मिक तौर पर ख़ास और असाधारण शक्ति चाहिए।

बनारस में क़दम रखते ही पहली चीज़ जिसने हमारा ध्यान अपनी तरफ़ खींचा, वह थी वहाँ के अनोखे रेलवे स्टेशन की रूपरेखा। इमारत की एक मन्दिर की तरह बनावट किसी रेलवे स्टेशन के लिए शायद बहुत ही रचनात्मक डिज़ाइन है, जो मैंने आजतक देखी है। हवा में एक तीखापन और ठण्ड थी और मैं अपनी जैकेट की गर्मी में कुछ और सिमट गयी। हमने एक ऑटोरिक्शा किया और फिर निकल पड़े एक बढ़िया होटल की खोज के लिए, जो शहर के गली-कूंचों में तक़रीबन दो घण्टे तक चलती रही। नौ बजे हुए काफ़ी वक़्त बीत चुका था और अंधेरे के साथ गहराता कोहरा खोज को ज़्यादा मुश्किल बना रहा था। आख़िरकार काशी विश्वनाथ पर ब्रह्ममुहूर्त की मंगल आरती के शुरू होने से महज़ तीन घण्टे पहले हम अपने लिए जगह ढूंढने में क़ामयाब रहे। हमारे पास तैयार होने के लिए सिर्फ़ 2 घण्टे थे और झपकी लेने के लिए तो बिल्कुल ही समय नहीं था।

कपड़ों की कई तहों से ख़ुद को लपेटने के बाद हम सुबह क़रीब दो बजे साइकिल रिक्शे से मंदिर की तरफ़ चल दिए। शहर की खाली और कुहरे से भरी गलियों में यह छोटा, लेकिन शांत और सोच से भरा सफ़र था। मंदिर शहर के बीचों-बीच पवित्र गंगा के पश्चिमी तट पर स्थित है। इलाक़ा पुराना और तंग है और सभी पवित्र जगहों की तरह, यहाँ भी अन्दर किसी भी गाड़ी का जाना मना है। इसके अलावा जो गलियाँ मंदिर की तरफ़ जाती हैं, वे इतनी सँकरी हैं कि वहाँ किसी भी गाड़ी का तेज़ी से चलना मुमकिन नहीं है। इतने तड़के भी मंदिर के द्वार से बाहर के रास्ते तक भारी सुरक्षा-व्यवस्था थी। हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मी मन्दिर की ओर जाने वाली सभी अहम जगहों पर मुस्तैदी से तैनात थे। हमें बताया गया कि मार्च 2006 में संकटमोचन मंदिर पर हुए आतंकवादी हमले के बाद काशी विश्वनाथ की सुरक्षा को और भी ज़्यादा चाक-चौबंद कर दिया गया है।

सभी सुरक्षा से जुड़ी जाँच-पड़तालों के बाद हम काशी विश्वनाथ के छोटे-से गर्भगृह में घुसे, जहाँ भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग विराजमान है। कहा जाता है कि काशी विश्वनाथ का दर्शन करने मात्र से देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित सभी 12 ज्योतिर्लिगों के दर्शन का फल मिल जाता है, और इसीलिए रोज़ाना दुनिया भर से हज़ारों-हज़ार श्रद्धालु आध्यात्मिक शांति और दैवीय अनुकम्पा पाने के लिए यहाँ आते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह शिव-मन्दिर हज़ारों साल से यहाँ पर है। लेकिन बाहरी हमलों के चलते यह कई बार टूटा और इसका जीर्णोद्धार होता रहा। माना जाता है कि इसके वर्तमान स्वरूप को इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने 1780 में बनवाया था। मन्दिर में मण्डप और गर्भगृह है और गर्भगृह के केन्द्र में एक चौकोर चांदी के चबूतरे पर लिंग स्थित है। यह लिंग काले पत्थर का है।

अन्दर पहुँचने पर हम दूसरे श्रद्धालुओं के साथ गर्भगृह के चार प्रवेश-द्वारों में से एक के पास खड़े हो गए। पवित्र मंत्रोच्चार के बीच पूजा करते हुए पुरोहितों का एक दल भगवान विश्वनाथ का शृंगार करने लगा। लिंग का अभिषेक पानी, दूध, घी, शहद से किया गया और फिर ताज़ी फूल-मालाओं से सजाया गया। चांदी के चबूतरे पर चारों ओर नए कपड़े रखे गए। इन प्रार्थनाओं और मंत्रोच्चार में एक जादू था। और जैसे ही मैंने ऊपर की ओर आँखें कीं, मैंने अपनी ज़िन्दगी का सबसे बेहतरीन नज़ारा देखा... सुबह के कोहरे की बीच मंदिर के स्वर्णिम महराब राजसी तरीक़े से चमकते हुए रोशनी फैला रहे हैं और एक पुराने पेड़ की डालें, जिनपर पत्तियाँ नहीं हैं, उन्हें हौले-से सहला रही है।

जैसे ही शृंगार का अनुष्ठान ख़त्म हुआ, हम सभी जो गर्भगृह के बाहर से इसे देख रहे थे, पास से दर्शन करने और चढ़ावा चढ़ाने के लिए एक-एक करके अन्दर बुलाए गए। पौ फटते है तानपुरे की संजीदा और मधुर ध्वनि के साथ एमएस सुब्बुलक्ष्मी की आवाज़ में "काशी विश्वनाथ सुप्रभातम्" ने एक और आध्यात्मिक सुबह की घोषणा की और मंदिर परिसर उससे गूंजने लगा। बनारस में यह एक और आम दिन की शुरुआत थी, लेकिन मेरे जागृत दिमाग़ और आत्मा के लिए यह ज़िन्दगी का सबसे अहम पल था।

13 comments:

ss said...

बनारस देखना हो तो हरेक घाट पर जायें, इसकी गलियां घुमें, असली बनारस देखने को मिलेगा।

P.N. Subramanian said...

आपकी बनारस यात्रा वृत्तांत इतनी अच्छी लगी की हम आपके पिछले पोस्ट पर भी गए और अमृतसर हो आए.
पढ़कर आनंद आ गया. आभार.

makrand said...

informative travel blog
well edited too

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

सुन्दर यात्रा वृत्तांत. बधाई!

एक तथ्य सही कर लेने की आवश्यकता है. इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने मौजूदा मन्दिर १७८० में नहीं बल्कि १७७६ में बनवाया था और इसके काफी बाद में लाहौर के महाराजा रणजीत सिंह ने इस मन्दिर का गुम्बद मढ़ाने के लिए करीब १ टन सोना दान दिया था.

के सी said...

आपने अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही बनारस का सुंदर चित्र खींचा है, कम शब्दों में एक गंभीर वक्तव्य को उद्धृत करके बहुत कुछ कह दिया.

संगीता पुरी said...

मैने भी आज ही आपकी दोनो कडियां पढी...बहुत अच्‍छी लगी।

हें प्रभु यह तेरापंथ said...

शितलजी,
आपकी आध्यात्मिक यात्रा-२, (बनारस यात्रा)का आपका अनुभव पढकर ऐसा महसुस हुआ कि मैने भी भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर लिये ,आपकी इस धार्मिक यात्रा वृत्तांत पढने से मन को सहजता कि अनुभुति होती है। आप कि लेखनी का क्रम भी सहज ओर सरल है- अच्छा लगा। आशा करता हु कि आपकी धार्मिक-आध्यात्मिक यात्रा अनवरत चलती रहे और हम घर बैठे-बैठे आपके द्वारा कि जाने वाली आध्यात्मिक
यात्राओ का विवरण पढकर देव दर्शन के सहभागी बन सके।
हार्दिक मगल कामनाओ के साथ आपका अभिन्दन॥
जय हिन्द॥

http://ombhiksu-ctup.blogspot.com/

हाका हुम्बा (हल्ला गुल्ला) said...

achcha laga, apne is puratan shahar ki sunderata aur iski mehak ko bayan kiya. Anytha log aksar nakartmak(negative) batein hi likhte hai. vakai ek baar phir behtarin yatra virtant. shabdo ka chayan bhee bezod.

RAM - JNU

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

Sheetal ji,
Ap ek achchhee news ancor hone ke sath hee ek achchhee lekhika bhee hain .ye bat apke lekhon se saf pata chaltee hai.
Banaras kee yatra ka apne achchhaa varnan kiya hai.vase to banaras men hai bahut kuchh...vahan ke ghat,univarsity,sankat mochan mandir,sarnath....pata naheen ap sabhee jagahon par gayee ya naheen.Lekin ap vishvanath mandir gayeen ye khushee kee bat hai.usase bhee jyada...khushee apke yatra vrittant ko padh kar huyee.
Hindi men yatra vrittant kam hee likhe gaye haim.mujhe ummeed hai ki ap hindi kee is kamee ko poora karne men apna yogdan bhavishya men kartee rahengee.shubhkamnaon ke sath.
Hemant Kumar

bole-bindas said...

Sheetal ji.....mai banaras se hi hoon...aapne jo varnan kiya hai wah bahut karib aur mahsoos karne k bad hi sambhav hai............

eklavya said...

शीतल जी मैं इस समय बॅंगलुर मे हूँ लेकिन मैने आपके शब्दो के द्वारा वाराणसी की उन पवित्र गलियों की यात्रा कर ली साथ ही भगवान विश्वनाथ जो की पूरे विश्व के नाथ है के दर्शन कर लिए एक पल भी ऐसा नही लगा की मे वाराणसी मे नही हूँ. सचमुच बहुत ही सजीव वर्णन किया आपने इसके लिए आपका साधुवाद.

Sanjeet Tripathi said...

बनारस, ठंड की कोहरे भरी सुबह में घाट पर बैठिए और देखते रहिए, घंटों कैसे बीतेंगे पता नहीं चलेगा।
यह बनारस है।
और ऐसी ही सुबह नाव पर बैठिए उस पार जाइए और दूर तक फैली ठंडी रेत पर नंगे पांव चलिए , यह बनारस है।
हरिशचंद्र घाट पर चौबीस घंटे नज़र रखिए………
यह जीवन है और उसका अंत है, यह भारत है।

bole-bindas said...

mai khud banaras se hoon parantu ab dilli me rahta hu...banaras ke bare me padhkar achcha lga...bahut si achchi baten pta chali..jo ham rah ker bhi gaur kerne se chook jate hain...its awesome...!!!