नवम्बर आ चुका है और साथ में सर्द सुबह और ठण्डी शाम ले आया है। ऊनी कपड़े अभी तक पूरी तरह बाहर नहीं आए हैं, लेकिन एक पतली शॉल अब ज़रूरी हो गई है। सबेरे बिस्तर की आरामदेह गर्माहट को छोड़कर उठना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। सुबह की चाय की पहली प्याली का असर जल्दी ही ख़त्म हो जाता है और मुझे जल्दी ही एक और प्याली चाय लेनी पड़ती है! मैं अपनी शॉल की गर्माहट में दुबकी हुई बैठती हूँ, उंगलियाँ कम को मज़बूती से पकड़े होती हैं और जब मैं अपनी बालकनी से बाहर झांकती हूँ, तो मन दशकों पहले की उन सर्द सुबहों में चला जाता है जब मैं जम्मू में स्कूल की छात्रा थी।
अचानक मेरी यादों के फ़्लैशबैक में हाऊ ज़िन्दा हो उठती है। हाऊ पतली-दुबली, छोटी-सी, क़रीब पचास साल की महिला थी। वह हमारे घर में साफ़-सफ़ाई वगैरह का काम किया करती थी। बरसों की कड़ी मेहनत ने उसके चेहरे को झुर्रियों से भर दिया था, हालाँकि उसके बाल तब भी बिल्कुल काले थे, एक भी सफ़ेद तिनके की झलक उनमें नहीं थी। मूलतः वह जम्मू से मीलों दूर बिलासपुर की रहने वाली थी। सालों पहले उसके पति ने उसे और उसके तीन बच्चों को किसी दूसरी औरत के लिए छोड़ दिया था। बिखर चुकी और लोगों के सवालों का सामना करने के लिए अकेली पड़ चुकी हाऊ ने शर्म और ग़रीबी से तंग आकर एक दिन अपने गांव को छोड़ दिया और बेहतरी की तलाश में जम्मू आ गयी, जहाँ उसके गांव के कई लोग छोटे-मोटे काम किया करते थे।
हमारा घर उन कई घरों में से एक था, जहाँ हाऊ काम किया करती थी। काम ख़त्म करके सुबह की चाय हमारे साथ लेना तक़रीबन रोज़ाना का काम था। और बहुत-सी ठण्डी सुबहों को वह अपने देस (गांव) के क़िस्से बड़ी अजीब-सी बोली में हमें सुनाया करती थी, जो मुझे ज़्यादा-कुछ समझ में नहीं आते थे। न ही वह मेरी भाषा ज़्यादा समझ पाती थी, लेकिन फिर भी अजीब बात यह है कि सब कुछ आसानी से कम्यूनिकेट हो जाता था। वह हर बात जो मैं कहती थी, उसपर वह अपना सर हिलाती थी और मुस्कुराते हुए कहती “हाऊ” (हाँ!)। इसलिए हम उसे हाऊ कहकर पुकारते थे! उसका असली नाम फूलबाई था।
हाऊ मुझे अपने गांव से बहने वाली नदी “महानन्दी” (महानदी) की कहानियाँ सुनाया करती थी और बरसात के दिनों की ख़तरनाक नदी के डरावने क़िस्से उनमें शामिल होते थे। उसने मुझे अपने पति और उसके परिवार की कहानियाँ भी सुनाईं। उसके ग़रीब माँ-बाप ने उसकी शादी तब ही कर दी, जब वह एक छोटी-सी बच्ची थी। जैसे ही वह अपनी शादी-शुदा ज़िन्दगी के सुखद शुरुआती दिनों की यादों में डूबती थी, उसकी आँखें चमक उठती थीं और उसकी मुस्कान सौ मील चौड़ी हो जाती थी। हाऊ का पति उससे उम्र में काफ़ी बड़ा था फिर भी उसने अपने पति की पूरे जी-जान से सेवा की, जबतक कि उसने हाऊ को उमर में और भी छोटी लड़की के लिए छोड़ नहीं दिया। उसकी आँखों की चमक को अब दुःख की छाया ढक लेती थी और वह अपने पति को कोसने लगती थी, वह अपने आँसुओं को भी शायद ही रोक पाती थी।
हाऊ हमेशा एक पतली-सी साड़ी पहनती थी जो वह कमर से कुछ इंच ऊपर बांधती थी और वह साड़ी सर्द-से-सर्द मौसम में भी शॉल की तरह उसके कंधों से लिपटी रहती थी। वह मोज़े नहीं पहनती थी, या कहें तो नए मोज़ों का ख़र्चा नहीं उठा सकती थी। मैंने के बार अपनी के पुरानी जोड़ी उसे दी भी, लेकिन उसने उसे कभी पहना नहीं। हमेशा के लिए दुःख सहने वाली त्यागी हिन्दुस्तानी औरत की तरह उसने उसे अपने सबसे छोटे लड़के को दे दिया। वह चाहती थी कि जब वो बड़ा हो तो पढ़-लिख कर बाबू बने। उसने उसे उन परेशानियों और मेहनत से दूर रखा, जिसका सामना उसे और उसके दो बड़े बेटों को हर पल करना पड़ता था। उसे अपने छोटे बेटे से बहुत आशाएँ थीं, लेकिन तब उसका दिल बुरी तरह टूट गया जब उसे पता लगा कि उसका “बिटवा” बुरी संगत में फँस गया है और बहुत ज़्यादा सिगरेट भी पीने लगा है।
मैंने आख़िरी बार उसे तब देखा था जब मैं घर गयी थी। वह और भी बूढ़ी हो चुकी थी और उसके बालों में कुछ चाँदी की लक़ीरें भी झलकने लगीं थीं, लेकिन उसकी मुस्कुराहट उतनी ही प्यारी और सब कुछ भुला देने वाली थी। “बिटवा” पूरी तरह बड़ा हो चुका था और हाँ, वो बाबू नहीं बन पाया था।
हाल में मैं चुनाव-पूर्व सर्वे के लिए छत्तीसगढ़ गयी थी और हमारा जहाज़ इस नवोदित राज्य के जंगलों और गांवों के ऊपर से गुज़र रहा था तो मैं हाऊ और महानदी की दहशत के बारे में सोच रही थी।
Wednesday, November 12, 2008
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हाऊ की याद! |
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