देव साहब के लिए मेरा लगाव बचपन से ही रहा है और मेरे परिवार में भी सब उनके चाहने वाले हैं। परिवार की सभी महिलाएँ, जिसमें मेरी माँ और मेरी स्व. नानी शामिल हैं, देव आनन्द की पक्की फ़ैन रहीं हैं। हम सभी इस सदाबहार और चिरयुवा नायक के साथ मुस्कुराए हैं, हँसे हैं, गुनगुनाए हैं, सुबके हैं और रोए भी हैं। हमें उनकी अल्हड़, अनौपचारिक और आधुनिक स्टाइल बेहद भाती थी। वे हमेशा बहुत स्वाभाविक लगे हैं, चाहे वे जिस किसी किरदार में भी क्यों न हों। 60 के दशक की क्लासिक फ़िल्म “हम दोनों” में उनका सेना के अफ़सर का किरदार, उनके घरेलू प्रोडक्शन “तेरे घर के सामने” में दिल्ली के आकर्षक आर्किटेक्ट का किरदार और 70 की ब्लॉकबस्टर “हरे रामा हरे कृष्णा” में उनका हिप्पी ऐक्ट मेरे पसंदीदा हैं। वे हमेशा बेहद ख़ूबसूरत लगे हैं, लेकिन साथ ही बहुत असल और विश्वसनीय भी। मेरे ख़्याल से उनकी अपील की वजह उनका अल्हड़ और आधुनिक स्टाइल है। देव साहब ने कभी भी ज़रूरत से ज़्यादा नाटकीयता का सहारा नहीं लिया, इस कारण उनका आकर्षण और अपील हर उम्र के लोगों को भाते हैं।
साथ ही उनकी ऊर्जा और ज़िन्दगी के लिए उनका उत्साह, ख़ासतौर पर फ़िल्म-निर्माण की कला के लिए, बेहद संक्रामक और प्रेरक हैं। आज भी वे बिना रुके लगातार फ़िल्म बनाते रहते हैं, पचासी साल की उम्र में भी एक नया प्रोजेक्ट उन्हें उतना ही उत्साहित करता है जितना उन्हें 1940 के दौर में करता था जब वे इस क्षेत्र में बिल्कुल नए थे। देव आनन्द पुरानी उपलब्धियों का सहारा लेना पसंद नहीं करते हैं। वे कभी मुड़कर पीछे नहीं देखते हैं। उनके अपने अल्फ़ाज़ में, “लगातार सीखने और चलते रहने की ज़रूरत, दरअसल ज़िन्दा रहने की ज़रूरत है।”
इसके अलावा वे बेहद रुमानी इंसान भी हैं। इस रुमानी सितारे का एक और उद्धरण, “मुझे लगता है कि ज़िन्दगी रुमानी होनी चाहिए, ज़रूरी नहीं कि ऐसा प्यार या अफ़ेयर के नज़रिए से ही हो लेकिन अगर आप एक ख़ूबसूरत पंक्ति पढ़ या लिख रहे हैं, तो यह रुमानी है, अगर आप एक सुन्दर टाई पहन रहे हैं, यह रुमानी है, आपका बोलना रुमानी है।”
कितने ख़ूबसूरत शब्द हैं। मैंने कई बार इन शब्दों को जिया है और इनसे प्रेरणा ली है। मैं आपको एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाती हूँ। पाँच साल पहले, सन् 2003 में, मैं अपनी साथी एंकर के साथ सुबह का कार्यक्रम कर रही थी। इस कार्यक्रम में एक स्टोरी देव आनन्द के बारे में थी कि उन्हें किसी पुरस्कार से नवाज़ा गया है। इस स्टोरी को देखकर मैं अपनी साथी एंकर से बोली, कितने दुःख की बात है कि बॉलीवुड के महानतम सितारों में से एक और एक लिविंग लीजेंड होने के बावजूद देव साहब को अब तक भारतीय फ़िल्म जगत का सबसे बड़ा सम्मान – दादा साहब फाल्के पुरस्कार – नहीं मिला है। यह कहते वक़्त मेरी आवाज़ में आवेश और ग़ुस्से की गूंज थी कि क्या इस पुरस्कार से जुड़े अधिकारी इस तथ्य के प्रति अन्धे हो गए हैं कि लिविंग लीजेंड देव साहब इस सम्मान के सबसे बड़े हक़दार हैं। बाद में उस रात जब मैं सोने की तैयारी कर रही थी, मेरी एंकर मित्र ने फ़ोन किया और उसके बाद उन्होंने जो कहा उसपर यक़ीन करना ज़रा मुश्किल था।
“शीतल, क्या तुमने टीवी पर ख़बर सुनी?”
“कौन-सी ख़बर?”
“अरे भई, अभी-अभी ख़बर आयी है कि देव आनन्द को इस साल के दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। तुम्हारी शिकायत दूर कर दी गयी है”, उसने मज़ाक किया।
मैं आश्चर्यचकित थी। मैंने टीवी खोला और पाया कि ख़बर वाक़ई सच थी!
आने वाले दिनों में और भी कुछ होने वाला था। वो शहर में पुरस्कार लेने के लिए आए थे, मुझे अपने बचपन और वयस्क जीवन के ‘क्रश’ का इंटरव्यू लेने का मौक़ा मिल गया। मैंने राजधानी के एक चमचमाते होटल में उनका इंटरव्यू किया। शूट करने से पहले में काफ़ी नर्वस थी, लेकिन जैसे ही देव साहब लॉबी में आए उन्होंने मुझे पूरी तरह सहज कर दिया।
“हैलो, शीतल। तुमने जो रंग पहना है, वह बहुत प्यारा और ख़ूबसूरत है,” उन्होंने अपने ख़ास अन्दाज़ में एक बड़ी-सी मुस्कान के साथ दोस्ताना लहज़े में हाथ मिलाते हुए कहा।
शताब्दी के महानतम सितारे की तरफ़ से आए इस शुरुआती वाक्य ने मुझे पूरी तरह सहज कर दिया और मैं खुल गयी। इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बहुतेरी बातें कहीं, उनमें जो बात मुझे अच्छी तरह याद है और जिसपर उन्होंने सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया, वह यह थी कि इंसान का एक ख़ास अन्दाज़ होना चाहिए।
“मैं ऐसी चीज़ें पहनना पसन्द करता हूँ जो किसी ने न पहने हों। जो भी मेरे शरीर पर है, यह घड़ी, या फिर यह मफ़लर, या यह ढीली पतलून ही लीजिए जो मेरी व्यक्तिगत पसंद और चुनाव को ज़ाहिर करती है। जिस तरह मैं चलता हूँ, या बोलता हूँ, या प्रतिक्रिया देता हूँ, मेरा व्यक्तिगत और ऑरिजिनल स्टाइल है। मौलिक होना बहुत महत्वपूर्ण है। अपनी सहजता में रहना ही ऑरिजनल होना है। आप रोल मॉडल बन जाते हैं अगर आपकी स्टाइल में मौलिकता है तो।”
तो यह है उनका मंत्र उनके ही मुंह से।
अब मैं अपनी बात देव आनन्द की फ़िल्म “हम दोनों” के उस मशहूर गाने के साथ ख़त्म करती हूँ, जो उनकी शख़्सियत को बयान करता है और कईयों के लिए प्रेरणास्रोत रहा है –
“मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया,
हर फ़िक़्र को धूएँ में उड़ाता चला गया।”
नोट – साइट के लिंक के लिए सागर जी को और कब्बन मिर्ज़ा की तस्वीरों के लिए युनूस जी को धन्यवाद।